गुरुवार, 17 मई 2012

विमल चन्द्र पाण्डेय का संस्मरण ....दूसरी किश्त





                                                   विमल चन्द्र पाण्डेय 


                                                     पिछली किश्त में आपने पढ़ा कि दिल्ली में बेरोजगारी के भीषण दिन गुजारने के बाद एक चमत्कार होता है और विमल को एक समाचार एजेंसी में नौकरी मिल जाती है | इस बीच अपने दोस्तों के साथ मिलकर वे एक प्रोडक्शन हॉउस भी खोल चुके होते है ...| लेकिन कुल मिलाकर परिस्थितियां ऐसी बनती हैं कि उन्हें दिल्ली छोड़कर इलाहाबाद आना पड़ता है |  और फिर क्या होता है इस शहर में , आईये इस कड़ी में पढ़ते हैं              
            


                                       प्रस्तुत है विमल चन्द्र पाण्डेय के संस्मरण 
                       शहरों से प्यार वाया इलाहाबाद -मेरी जिंदगी के सबसे उपजाऊ साल 
                                                     की दूसरी किश्त 




इलाहाबाद में नौकरी ज्वाइन करने के दो महीने बाद ही ´नया ज्ञानोदय´ के युवा पीढ़ी विशेशांक में मेरी कहानी ´पिता तुम कायर थे´ छपी थी और मैं उन दिनों दिन में चार से पांच कॉल के औसत से अपनी कहानी की तारीफ़ देश के कोने-कोने से सुनता था। लोग उस कहानी को पढ़ कर रोते सुबकते हुये फोन करते। कई ने मुझे यकीन दिलाया कि मैंने इस कहानी के रूप में हिंदी साहित्य को एक नायाब तोहफ़ा दिया है। मैं धीरे-धीरे उनकी बातों और इस जैसी कुछ और बातों पर यकी़न कर चला था कि मेरी मुलाकात मुरलीधर जी से हुयी। उसके पहले कुछ और बातों का ज़िक्र लाज़िमी है। इलाहाबाद में जो मेरा पहला दोस्त या साथी बना उसका नाम दुर्गेश मिश्रा था। वह भी मेरी तरह एक समाचार एजेंसी में पत्रकार था जिसका नाम पूछने पर लोग कहते थे, ´´अच्छा अच्छा, वह अखबार ?´´
वह तुरंत सफ़ाई देता, ´´नहीं नहीं अखबार सरा है, यह भारत की पहली न्यूज़ एजेंसी है।´´ इस पर कई बड़े अख़बारों के पत्रकार पूछ बैठते, ´´अच्छा यह शुरू हो गयी क्या ? कब ? मुझे भी दुर्गेश से ही पता चला कि यह भारत की पहली न्यूज़ एजेंसी है क्योंकि जिस दिन क्लास में यह पाठ पढ़ाया गया हो शायद मैं कैंटीन में बैठा चाय सुड़क रहा होउं। दुर्गेश पूरी तरह एक आकिस्मक व्यक्ति था जो कभी कुछ भी कर सकता था। वह अपनी बाईक पर जब मुझे पीछे बैठा कर चालीस की स्पीड में चला रहा होता था और उसे अचानक याद आता था कि उसने गाड़ी में तेल नहीं डलवाया तो वह चालीस की स्पीड पर चल रही गाड़ी को ज़ोर-ज़ोर से हिला कर पेट्रोल चेक करने लगता था। कभी भी कुछ भी बोल सकने की अपनी योग्यता के कारण यह कई लोगों से गाली और एकाध से बहुत तगड़ी मार खा चुका था। उसके आराध्य देव शंकर भगवान और मुरली मनोहर जोशी थे और मेरे सामने वह मार्क्सवाद और मार्क्सवादियों को गाली देने से यथासंभव बचता था जबकि मैंने कभी उससे मार्क्सवाद के पक्ष या विपक्ष में कुछ भी नहीं कहा था। मेरे रोज न नहाने, दस पंद्रह दिनों पर दाढ़ी बनवाने की क्रिया और संघियों को कोसने वाले किसी बयान को मिला कर वह पता नहीं किस प्रक्रिया से इस नतीजे पर पहुंचा था कि मैं मार्क्सवादी हूं और उसका दूसरा उप-निष्कर्ष था कि मार्क्सवादी सफाई पर बिल्कुल ध्यान नहीं देते। जब तक इलाहाबाद की चर्चा जारी रहेगी, दुर्गेश की चर्चा होती रहेगी।
मुझे नहीं पता था कि इलाहाबाद में साहित्य की किताबें कहां मिलती हैं या थियेटर कहां होते हैं। मैंने अपने मित्र और युवा कथाकार चंदन पाण्डेय को फोन किया जिसके बारे में मेरा मानना है कि मैं ग्लोब के किसी भी हिस्से में रहूं, अच्छी किताबें और फिल्में कहां मिलेंगी, जानने के लिये उससे अच्छा आदमी कोई नहीं है। उसने मेरी मदद की और मुझे दो लोगों के नंबर दिये जो काफी समय से इलाहाबाद में थे और साहित्य के अध्येता थे। पहला नंबर स्विच ऑफ निकला जिसका आज मुझे नाम भी याद नहीं और दूसरा नंबर शेशनाथ का निकला जिसने इलाहाबाद में रहने का मेरा आनंद कई गुना कर दिया। इस बीच मेरी मुलाकात रणविजय सिंह सत्यकेतु से हुयी जिन्हें मैं उनकी दो कहानियों ´फांक´ और ´कर्फ्यू´ से जानता था। वह गंभीर और बिल्कुल सौम्य टाइप के आदमी लगे। उन्होंने मुझे मुरलीधर से मिलवाने को कहा और साथ में यह भी हम लोगों को मिल कर इलाहाबाद में कोई साहित्यिक गोश्ठी शुरू करनी चाहिये। आकाशवाणी में कार्यक्रम अधिशासी डॉ. मुरलीधर जी से मेरी पहली मुलाक़ात पता नहीं उन्हें याद है या नहीं, लेकिन मेरे लिये यह आंख खोलने वाली रही। न सिर्फ़ वह मुलाक़ात बल्कि उसके बाद भी उन्हें देख कर उनके बिना सिखाये उनके आचरण से ज़िंदगी के बारे में बहुत कुछ सीखा। मैं सत्यकेतु के साथ अशोक नगर स्थित उनके घर पहुंचा तो वह नीचे ही मिल गये। अपने साथ हमें वह उपर चौथी या पांचवी मंज़िल स्थित अपने फ्लैट में ले गये जहां तक पहुंचते मेरी सांस फूल जाती थी और हर बार मैं सिगरेट छोड़ने की सोचता था। हमें पानी देने के बाद उन्होंने मेरी ओर मुख़ातिब होकर कहा, ´´आपकी कहानी पढ़ी इस बार नया ज्ञानोदय में´´। मैं आदतवश और अपने आशावादी स्वभाव के कारण अब प्रतीक्षा करने लगा कि अब वह किन शब्दों में इस कहानी की तारीफ़ करते हैं। मेरे चेहरे पर वह मुस्कराहट आ गयी जो मुख्य अतिथि के चेहरे पर मंच से नीचे देखते वक़्त होती है। वह मेरी बगल में सोफ़े पर बैठ गये और अपनी गहरी और साफ़ स्पश्ट उच्चारण वाली आवाज़ में बोले, ´´आपने क्या सोच के ऐसे विशय पर कहानी लिखी जिस पर पचासों कहानियां लिखी जा चुकी हैं और सैकड़ों फि़ल्में बन चुकी हैं ?´´ मैं हक्का बक्का था लेकिन हारा नहीं था। अपने बिखरे कांफिडेंस को ज़मीन पर से उठा कर मैंने अपने चेहरे पर लगाया और विशय के बारे में मज़बूत शब्दों और कमज़ोर आवाज़ में कोई दलील दी जो अब मुझे याद नहीं है। ज़ाहिर है वह याद किये जाने लायक थी भी नहीं। ´´उस पर उसका अंत इतना टाइप्ड और सतही है कि वहां तक पहुंचते-पहुंचते कहानी बिल्कुल खराब और अझेल हो जाती है।´´ उनका निष्कर्ष था। मैं बहुत अजीब स्थिति में था। अपनी कहानी तो दूर, मैंने ऐसे शब्द किसी खराब कहानीकार के लिये भी कभी उसके सामने प्रयोग नहीं किये थे (ज़ाहिर है मैं खुद को अच्छाकहानीकार मानता हूँ). कम से कम मैं रचनाकार के सामने उसकी रचना की तारीफ़ किये जाने का नियम जानता था। यह वही इलाहाबाद था और यह वही इलाहाबादी तेवर था जिसकी तारीफ में जितना कहा जाय, कम है। इस मुलाक़ात के बाद ´मुखातिब´ को शुरू किये जाने की योजनाएं बनने लगी थीं।


                                                                                        क्रमशः ........


                                                                                  (प्रत्येक रविवार को नयी किश्त )


संपर्क ---


विमल चन्द्र पाण्डेय 
प्लाट न. - 130, 131 
मिसिरपूरा , लहरतारा 
वाराणसी , उ.प्र.   221002


फोन न. - 09820813904
             09451887246


फिल्मों में विशेष रूचि 

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