गुरुवार, 8 मई 2014

मराम अल-मासिरी की कवितायें






समकालीन विश्व-कविता में मराम अल-मासिरी को बड़े आदर और सम्मान के साथ याद किया जाता है | उनकी कविताओं में मातृभूमि से अलग होने की पीड़ा के साथ, उस पर मचे रक्तपात की झलक भी दिखाई देती है | युवा कवि-आलोचक अशोक कुमार पाण्डेय ने उनकी कुछ कविताओं का अनुवाद किया है | यह अनुवाद 'नया ज्ञानोदय' पत्रिका के 'सरहद विशेषांक' में छपा है | आभार सहित हम इसे सिताब दियारा ब्लॉग पर प्रकाशित कर रहे हैं |

                     

    प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर सीरियाई लेखिका मराम अल-मासिरी की कवितायें




एक


स्कूल में खेल के मैदान की दीवारों पर
छोटे बच्चों की उँगलियों की पोरों ने
सफ़ेद चाक से
लिखा था वह शब्द – आज़ादी

इतिहास की दीवारों पर
आज़ादी ने लिखा है उनका नाम
लहू से



दो ...


वह नागरिक
अहमद अब्दुल वहाब
चीख़ा
मैं एक इंसान हूँ, जानवर नहीं

अपनी उखड़ती आवाज़ से
भर दिए उसने टेलीविजन के परदे

भय और चुप्पी की ज़ंजीरे तोड़कर
वह निकल आया बाहर
जैसे कोई क़ैदी भाग आता है अपनी क़ैद से
फूल रही थी उसके गले की नसें
आँखें क्रोध में डूबी

उसने अपने जीवन में न कभी बाल्ज़ाक को पढ़ा था न ह्यूगो को
न वह लेनिन को जानता था, न कार्ल मार्क्स को
उस क्षण
वह साधारण नागरिक
असाधारण हो गया था. 


तीन


तुमने देखा है उसे?
वह गोद में अपने बच्चे को लिए जा रहा था
तेज़ी से तय करता हुआ अपना रास्ता
माथा ऊँचा
पीठ सीधी

इस तरह अपने बाप की गोद में
कितना ख़ुश और मगरूर हो सकता था वह बच्चा
बस अगर वह ज़िन्दा होता.


चार


मेरा बेटा ख़ूबसूरत है
हीरो है मेरा बेटा
और तानाशाह जलता है नायकों से

हीरो है मेरा बेटा, मेरा प्यार है
मेरी आँखों का तारा
मेरी आत्मा

वह भटकती है यहाँ वहाँ
दिखाती है उसे उन लोगों को
झुकी हैं जिनकी आँखें उदास
उसकी बाहों में है
मुस्कुराता हुआ उसका बेटा
तस्वीर के चौखटे के बीच


पांच



अपनी माँ के गर्भ से नहीं
धरती की गर्भ से निकाला गया
वह शिशु

प्रागैतिहासिक मूर्ति नहीं है यह
शिशु है...सफ़ेद कपड़ों में लिपटा
बम से ढंका हुआ
माँ की छाती का पहला दूध पीने का मौक़ा
नहीं मिला इसे


छः


अपने ताबूतों में लिपटे पड़े हैं सीरिया के बच्चे
जैसे टाफी लिपटी हो रैपर में
लेकिन शक्कर से नहीं
मांस, प्रेम और एक स्वप्न से बने हैं ये

सड़कें तुम्हारी प्रतीक्षा में हैं
बागीचे तुम्हारी प्रतीक्षा में हैं
स्कूल और लकदक चौराहे
तुम्हारी प्रतीक्षा में हैं 
सीरिया के बच्चों 

स्वर्ग के पक्षी बन आकाश में खेलने के लिए
अभी कितनी कम उम्र है तुम्हारी


सात ....


हम निर्वासित हैं
राजद्रोह की दवा पर ज़िंदा
हमारी मातृभूमि बन गयी है फेसबुक
वे आकाश खोलता है यह जिन्हें हमारे लिए बंद कर दिया गया था
सीमाओं पर

हम निर्वासित हैं
सीने से अपने मोबाइल चिपकाए हुए सोते हैं
अपने स्क्रीन की रौशनी में
उदासियों में ऊंघते हैं और उम्मीदों के साथ जागते हैं

हम निर्वासित हैं
अपने सुदूर घरों में भटकते हैं
जैसे महबूब की एक झलक के लिए
क़ैद में भटकते हैं आशिक़

हम निर्वासित हैं
खौफ़नाक नीलामी में लगा दी गयी अपनी मातृभूमि की
मुहब्बत के लाइलाज़ रोग से पीड़ित.


आठ



आज़ादी के बच्चे
व्हाईट कंपनी की पोशाक नहीं पहनते
उनकी त्वचा को आदत पड़ जाती है
खुरदुरे कपड़ों की

आज़ादी के बच्चे
जूने कपड़े पहनते हैं
उनके जूते इतने बड़े होते हैं
की अगले साल भी आ सकें बिलकुल ठीक
और अक्सर वे
अपनी नग्नता और घावों के निशान ही पहनते हैं

आज़ादी के बच्चों को
केले या स्ट्राबेरी का स्वाद नहीं पता होता
वे चाकलेट वाले बिस्कुट नहीं
बस धीरज के पानी में डुबा
सूखी रोटियां ही खाते हैं

शाम को
आज़ादी के बच्चे गर्म पानी में नहीं नहाते
न साबुन की रंगीन गेदों में खेलते हैं
वे रबर के टायरों
टिन के बक्सों
और दगे हुए बमों से खेलते हैं.

सोने से पहले
आज़ादी के बच्चे ब्रश नहीं करते
न ही राजकुमार-राजकुमारियों के किस्से सुनते हैं
वे सिर्फ ठण्ड और खौफ़ की चुप्पियाँ सुनते हैं

सभी बच्चों की तरह
फुटपाथों पर
रिफ्यूजी कैम्पों में
या कब्रों में
आज़ादी के बच्चे
अपनी प्यारी माँ का इंतज़ार करते हैं.



नौ


.
सीरिया के पहाड़ों और मैदानों में
और रिफ्यूजी कैम्पों में
वह आई निर्वस्त्र.
पैर कीचड़ में सने हुए
हाथ ठण्ड से फटे हुए
लेकिन वह आगे बढ़ती रही.

वह चलती रही
उसके बच्चे झूल रहे थे उसकी बाहों में
जब वह भाग रही थी नीचे गिर गए वे
कष्ट से रो पड़ी वह
लेकिन आगे बढ़ती रही.
उसके पाँव टूट गए
लेकिन वह आगे बढ़ती रही
उन्होंने गर्दन रेत दी उसकी
लेकिन वह गाती रही

एक बलत्कृत औरत के
सीरिया की जेल में जन्में बेटे ने कहा
मुझे एक कहानी सुनाओ माँ.


दस



मुलाक़ाती ने कहा –

एक समय की बात है
एक बच्चा अपनी माँ के साथ
खिड़की वाले घर में रहता था
जिससे बाहर की एक खामोश सड़क दिखाई देती थी

बच्चे ने टोका-
खिड़की क्या होती है?

यह दीवार में खुलती है
जिससे धूप भीतर आती है
और कभी कभी इसकी चौखट को
चिड़ियाँ स्पर्श करतीं हैं

बच्चे ने टोका-
चिड़ियाँ क्या होतीं हैं?

तो किस्सागो ने एक पेन लिया
और दीवार पर
एक खिड़की
और एक दो पंखों वाले बच्चे का चित्र बनाया.



परिचय

मराम अल मासिरी
26, रयू देलाम्बर
75014 पेरिस
फ्रांस

सीरिया के लात्किया में जन्मी मराम अल-मासिरी एक समकालीन लेखक और कवि हैं.

दमास्कस में अंग्रेजी साहित्य पढने के बाद वह 1982 में पेरिस चलीं गयीं.
सम्प्रति वह पूरी तरह से साहित्य और अनुवाद में समर्पित हैं.
आज वह अपनी पीढ़ी की सबसे प्रतिष्ठित और प्रभावी स्त्री स्वर मानी जाती हैं.

कई कविता संग्रह प्रकाशित
दुनिया की कई भाषाओँ में कवितायें अनुदित  

   



अनुवादक

अशोक कुमार पाण्डेय

युवा कवि, आलोचक, ब्लॉगर और प्रकाशक
आजकल दिल्ली में रहनवारी





















9 टिप्‍पणियां:

  1. निशब्द करती कविता बस दिल के कोने कोने में ताण्ड्व मचा गयी।

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  2. भेदती हुयी कवितायेँ..

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  3. बेनामी7:51 pm, मई 08, 2014

    जीवनसंघर्ष कविताओं गहरा ठहराव देता है। सपनों के टूटने कि आहटें। गिरते मानवीय मूल्यों कि चिंता है। अनुभवों की जटिल अभिवयक्ति की एक चुनौतीपूर्ण कवि हैं।
    बहुत बढ़िया अनुवाद।
    धन्यवाद .......शाहनाज़ इमरानी

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  4. मैं इन्हें अनुवाद कैसे मानूं़ मुझे तो मूल का सा आस्वाद मिल राम जी भाई इस अ नुवादक को चूम लेने का मन कर रहा. बधाई आपको भी ऐसा सुंदर अनुवाद पढ़वाने कै लिए.

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  5. शुक्रिया..आप सबका. अनुवाद करते समय हर बार मन ही मन मूल कवि से क्षमा मांगता हूँ.

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  6. बेनामी9:14 am, मई 10, 2014

    Bahut hi sundar anuvaad, aur mann ko jhakjhorti kavitayein, kavi aur Ashok Bhai ko salaam...
    ~ AjAy Kum@r Bohat

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  7. हाथ चूम लूँ कवि और अनुवादक का !!!! बधाई साथी !
    इसे कहते हैं सच्चा स्वर ! लाजवाब कविताएँ पढ़वाने के लिए भाई रामजी आपका आभार !!
    - कमल जीत चौधरी [ जे० & के० ]

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  8. शानदार कविताओं का बेहतरीन अनुवाद....अन्दर तक झिंझोड़ कर रख दिया...

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