सौरभ राय 'भगीरथ'
‘सौरभ राय
भगीरथ’ की कवितायें इधर कई ब्लॉगों और पत्रिकाओं में देखने को मिली हैं | कह सकता
हूँ , कि इन कविताओं में एक संभावना तो दिखाई देती ही है | हालाकि यह भी सही है ,
कि इन प्रयासों को अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना है | सिताब दियारा ब्लॉग
शुभकामनाओं के साथ ‘सौरभ राय भागीरथ’ की कविताओं का स्वागत करता है |
1 .... विद्रोह
विद्रोह था
यह
कि मैं अधर्म को धर्म
नहीं कह सकता था ।
कि मैं अधर्म को धर्म
नहीं कह सकता था ।
विद्रोह था
कि मेरी आँखों में रोशनी
और ह्रदय में ज्वार था शेष ।
कि मेरी आँखों में रोशनी
और ह्रदय में ज्वार था शेष ।
विद्रोह ही
तो था
कि मैंने इतिहास पढ़ा था
और गणित में मेरी रूचि थी
बच्चों के साथ
मैं अपना बचपन जीता था
और वृद्धों के साथ
करता था राजनीति की बातें
चूम सकता था
अपनी प्रेमिका को
छू सकता था उसकी देह
खेतों में तितलियों के बीच दौड़ना
मुझे आज भी अच्छा लगता था ।
कि मैंने इतिहास पढ़ा था
और गणित में मेरी रूचि थी
बच्चों के साथ
मैं अपना बचपन जीता था
और वृद्धों के साथ
करता था राजनीति की बातें
चूम सकता था
अपनी प्रेमिका को
छू सकता था उसकी देह
खेतों में तितलियों के बीच दौड़ना
मुझे आज भी अच्छा लगता था ।
विद्रोह था
कि मैं शहर की चकाचौंध में नहीं खोया
नहीं लड़खड़ाए मेरे कदम
नहीं उड़ा मैं धुआँ बन कर ।
कि मैं शहर की चकाचौंध में नहीं खोया
नहीं लड़खड़ाए मेरे कदम
नहीं उड़ा मैं धुआँ बन कर ।
विद्रोह था
कि दीवार पर लिखे धार्मिक नारे
मुझे गालियाँ लगती थीं ।
कि दीवार पर लिखे धार्मिक नारे
मुझे गालियाँ लगती थीं ।
विद्रोह था
कि मैं पड़ोसी से संपर्क रखता था
उसकी जाति धर्म जाने बिना ।
कि मैं पड़ोसी से संपर्क रखता था
उसकी जाति धर्म जाने बिना ।
संभावना थी
बस इतनी
कि मेरे इस विद्रोह में
मैं अकेला नहीं था ।
कि मेरे इस विद्रोह में
मैं अकेला नहीं था ।
इस संभावना
को अस्वीकार करना भी
मेरा विद्रोह था ।
मेरा विद्रोह था ।
2 .... अर्नेस्टो ‘चे’ ग्वेरा
हॉस्टल की दीवार फांदकर
लड़की जब
लड़कों के कमरे में लेट
बाप के पैसों का
सिगरेट पीती है
उस भटकते हुए धुंए में
थोड़ी धुंधली
थोड़ी और शर्मसार
दीवार पर चिपकी हुई
‘चे’ की हैरान आँखें
क्या तुम्हे विचलित नहीं करतीं ?
लड़की जब
लड़कों के कमरे में लेट
बाप के पैसों का
सिगरेट पीती है
उस भटकते हुए धुंए में
थोड़ी धुंधली
थोड़ी और शर्मसार
दीवार पर चिपकी हुई
‘चे’ की हैरान आँखें
क्या तुम्हे विचलित नहीं करतीं ?
वियतनाम के आख़िरी
फटेहाल दर्ज़ी से सिलवाकर
अमरीकी साम्राज्यवाद का ठप्पा लगवाकर
दाढ़ी बढ़ाकर
जब लड़के ‘चे’ की टी-शर्ट पहन
कोका-कोला पीते हुए डकारते हैं -
‘क्रांति’
तो क्या
उस चुल्लू भर कोक के चक्रवात में
तुम्हे डूबता हुआ ‘चे’
डूबती हुई क्रांति
दिखलाई नहीं देती ?
तुम्हे डूबता हुआ ‘चे’
डूबती हुई क्रांति
दिखलाई नहीं देती ?
अंग्रेज़ी में गलियाते बच्चे जब
कोलंबिया के किसानों का
सारा ख़ून
‘चे’ छपी कॉफ़ी मग में समेटकर
बात करते हैं
दुनिया बदलने की
(उनकी बातों में दुनिया कम
गाली ज़्यादा होती है)
ऐसे में क्या तुम्हे
उस मग पर छपी तस्वीर के
चकनाचूर होने की प्रतिध्वनि
सुनाई नहीं पड़ती ?
‘चे’ के नाम पर छपी
बिकाऊ युवा ही
पूँजीवाद की क्रांति है ।
3 ... सिनेमा
सूरज की आँखें
टकराती हैं
कुरोसावा की आँखों से
सिगार के धुंए से
धीरे धीरे
भर जाते हैं
गोडार्ड के
चौबीस फ्रेम ।
हड्डी से स्पेसशिप में
बदल जाती है
क्यूब्रिक की दुनिया
बस एक जम्प कट की बदौलत
और चाँद की आँखों में
धंसी मलती है
मेलिएस की रॉकेट ।
इटली के ऑरचिर्ड में
कॉपोला के पिस्टल से
चलती है गोली
वाइल्ड वेस्ट के काउबॉय
लियॉन का घोड़ा
फांद जाता है
चलती हुई ट्रेन ।
बनारस की गलियों में
दौड़ता हुआ
नन्हा सत्यजीत राय
पहुँचता है
गंगा तट तक
माँ बुलाती है
चेहरा धोता हुआ
पाता है
चेहरा खाली
चेहरा जुड़ा हुआ
इन्ग्मार बर्गमन के
कटे फ्रेम से ।
फेलीनी उड़ता हुआ
अचानक
बंधा पता है
आसमान से
गिरता है जूता
चुपचाप हँसता है
चैपलिन
फीते निकाल
नूडल्स बनता
जूते संग खाता है ।
बूढ़ा वेलेस
तलाशता है
स्कॉर्सीज़ की टैक्सी में
रोज़बड का रहस्य ।
आइनस्टाइन का बच्चा
तेज़ी से
सीढ़ियों पर
लुढ़कता है ।
सीढ़ियाँ अचानक
घूमने लगती हैं
अपनी धुरी पर
नीचे मिलती है
हिचकॉक की
लाश !
एक समुराई
धुंधले से सूरज की तरफ
चलता जाता है ।
हलकी सी धूल उड़ती है ।
स्क्रीन पर
लिखा हुआ सा
उभरने लगता है -
‘ला फ़िन’
‘दास इंड’
‘दी एन्ड’
रील
घूमती रहती है ।
4 .... डॉक्टर
डॉक्टर
रविंद्रनाथ सोरेन
एम बी बी एस, रांची
एम एस, पटना
चौड़ी छाती
कद लम्बा
चेहरे पर मुस्कान !
एम बी बी एस, रांची
एम एस, पटना
चौड़ी छाती
कद लम्बा
चेहरे पर मुस्कान !
जिस समाज में
सर उठाना
दूभर होता था
उस आदिवासी समाज के
अन्धकार ग्राम से निकल पढ़ाई की
बीवी घर छोड़ चली गयी
फिर भी पेशे से न डिगे |
सर उठाना
दूभर होता था
उस आदिवासी समाज के
अन्धकार ग्राम से निकल पढ़ाई की
बीवी घर छोड़ चली गयी
फिर भी पेशे से न डिगे |
जहाँ के बाकी
डॉक्टर
कमपाउंडर से दवाई का नाम पूछते थे
वैसे कस्बे में
दवाखाना खोला
और आस पास के ग्रामों के
कितने लोगों को बचा लिया
कालाजार, मलेरिया, जोंडिस से
मरने से |
कमपाउंडर से दवाई का नाम पूछते थे
वैसे कस्बे में
दवाखाना खोला
और आस पास के ग्रामों के
कितने लोगों को बचा लिया
कालाजार, मलेरिया, जोंडिस से
मरने से |
मरीज़ कहता-
आपकी फीस नहीं दे सकता
तो जेब से निकाल
दवाई का पैसा पकड़ा देते
बड़ों से श्रद्धा
बच्चों से बड़ा स्नेह रखते
और आए दिन चले जाते
हैजा पीड़ित ग्रामों में
स्कूटर पर स्वर होकर |
आपकी फीस नहीं दे सकता
तो जेब से निकाल
दवाई का पैसा पकड़ा देते
बड़ों से श्रद्धा
बच्चों से बड़ा स्नेह रखते
और आए दिन चले जाते
हैजा पीड़ित ग्रामों में
स्कूटर पर स्वर होकर |
एक दिन
ऐसे ही किसी ग्राम से
लौटते वक़्त
रोक लिया स्कूटर
चले गए गाँव के एक होटल में
जलेबी खाने
और जलेबी खाते खाते ही
रुक गयी धड़कन
पड़ गया दिल का दौरा
चल बसे पचास से कम उम्र में |
ऐसे ही किसी ग्राम से
लौटते वक़्त
रोक लिया स्कूटर
चले गए गाँव के एक होटल में
जलेबी खाने
और जलेबी खाते खाते ही
रुक गयी धड़कन
पड़ गया दिल का दौरा
चल बसे पचास से कम उम्र में |
उन्होंने
अपनी उम्र
गरीबों में बाँट दी |
गरीबों में बाँट दी |
5 .... दाढ़ी बना डाला
घर में बैठे
जब मुझे घर की याद आई
खुन्नस में मैंने ब्लेड निकाला
नस काटने की हिम्मत नहीं थी
दाढ़ी बना डाला |
मेरी सूरत देखती है कि बदला नहीं-
जब उगने-उगाने को कुछ नहीं बचता
दाढ़ी उग-उग आती है |
जब मुझे घर की याद आई
खुन्नस में मैंने ब्लेड निकाला
नस काटने की हिम्मत नहीं थी
दाढ़ी बना डाला |
मेरी सूरत देखती है कि बदला नहीं-
जब उगने-उगाने को कुछ नहीं बचता
दाढ़ी उग-उग आती है |
नयी ब्लेड को
चमकाकर
बेवकूफ की तरह मैंने कहा-
“अँधेरा छोटे-छोटे बालों की तरह उगा है
काटोगे तो फिर से उग जायेगा |”
पर खुन्नस में मैंने ब्लेड निकाला
नस काटने की हिम्मत नहीं थी
दाढ़ी बना डाला |
बेवकूफ की तरह मैंने कहा-
“अँधेरा छोटे-छोटे बालों की तरह उगा है
काटोगे तो फिर से उग जायेगा |”
पर खुन्नस में मैंने ब्लेड निकाला
नस काटने की हिम्मत नहीं थी
दाढ़ी बना डाला |
अँधेरा मेरे
कमरे के आकार का अँधेरा था |
मेरा साया दीवार पर डोलता सा
तिनकों में बना वो पिंजड़ा खोलता सा
नहीं खुला !
पिंजड़ा सहित पेड़ पर उड़ जा बैठा;
मैं स्वतंत्र हूँ ?
मेरा चेहरा एक समतल सीढ़ी था
जिस पर मैं चढ़ता-उतरता…
नहीं, चलता था |
मेरा साया दीवार पर डोलता सा
तिनकों में बना वो पिंजड़ा खोलता सा
नहीं खुला !
पिंजड़ा सहित पेड़ पर उड़ जा बैठा;
मैं स्वतंत्र हूँ ?
मेरा चेहरा एक समतल सीढ़ी था
जिस पर मैं चढ़ता-उतरता…
नहीं, चलता था |
सामने लेनिन की तस्वीर
और उसकी दाढ़ी
अलबत्ता, टेबुल पर मेरी |
मेरा कटघरा मेरी दाढ़ी में सिमट गया है
दाढ़ी में समय खपाकर
दाढ़ी में कलम खपाकर
ज़िन्दगी का अजीब जोकर लगता हूँ
इसी खुन्नस में मैंने ब्लेड निकाला
नस काटने की हिम्मत नहीं थी
दाढ़ी बना डाला |
और उसकी दाढ़ी
अलबत्ता, टेबुल पर मेरी |
मेरा कटघरा मेरी दाढ़ी में सिमट गया है
दाढ़ी में समय खपाकर
दाढ़ी में कलम खपाकर
ज़िन्दगी का अजीब जोकर लगता हूँ
इसी खुन्नस में मैंने ब्लेड निकाला
नस काटने की हिम्मत नहीं थी
दाढ़ी बना डाला |
मैं अपनी ही
दाढ़ी पर
उगा हुआ था |
उगा हुआ था |
परिचय और संपर्क
सौरभ राय 'भगीरथ'
उम्र – 24 वर्ष
बंगलोर में रहते हैं
सभी महत्वपूर्ण साहित्यिक
पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित
कविता संग्रह ‘यायावर’ 2012 में
प्रकाशित और चर्चित
फ़ोन - 09742876892
एक से बढ़कर एक मौलिक रचनाएँ
जवाब देंहटाएं-
राजस्थान पत्रिका के सितम्बर 2012 मे आपके ब्लांग का परिचय मिला उससे आपके ब्लाग पर आया और आपकी कविता विद्रोह पढी । बहुत अच्छा लगा विचार के नजदीक पाया । आपसे अपेक्षा बढी है आप ऐसे ही लिखते रहो ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद । आप मेरी और भी कवितायेँ यहाँ पढ़ सकते हैं - http://souravroy.com/poems/
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