रविवार, 24 मार्च 2013

वंदना शुक्ल की कवितायें


                                  वंदना शुक्ल 


वंदना शुक्ल ने एक कथाकार के रूप में काफी ख्याति अर्जित की है | हाल ही में उनका पहला कहानी संग्रह ‘उड़ानों के सारांश’ अंतिका प्रकाशन से आया है , और पर्याप्त रूप से चर्चित भी हुआ है | सुखद यह भी है , कि वंदना कहानियों के अतिरिक्त कविताओं और लेखों के माध्यम से भी साहित्यिक जगत में सार्थक हस्तक्षेप करती आयी हैं , और रंगकर्म के क्षेत्र में भी सक्रिय रहती हैं | इनकी कवितायें आप पहले भी सिताब दियारा ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं | लीजिये , एक बार फिर उन्हें पढ़ने का सुख उठाते हैं |

             
              प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर वंदना शुक्ल की कवितायें  


एक ......   

इतिहास

उस स्मृति की परछाईं बहुत लंबी होती है
जिसकी जड़ें गहरी और ज़मीन गीली हो 
जंगल के मुहाने को छूती याद के घने दरख्त की
सबसे ऊँची पत्ती की मुरझाई ,मरियल सी छाया
कि कोई अदना सी चींटी भी ना बचा सके
उसमे अपनी छाँह
पर वो भी घेरती तो है ही कुछ हिस्सा 
ज़मीन का ...अपने ''होने'' का दावा करती हुई  
             

दो ....    

आखिरकार

गर्भ से उम्र की दूरी
बहुत खामोशी से नापती है
ज़िंदगी की सड़क
अकेले ....विरक्त
निर्विकार ....अक्षुण
बहुत शोर करती हैं अतृप्तताएं
प्रायश्चित वापस लौटने लगते हैं
सिर झुकाए
उन निरुपाय अंधेरों की ओर
जो नदी की सबसे सुनसान तलहटी पर
सोये रहते हैं भुरभुरी जीवात्माओं की तरह 
जिनकी नींद रेशा रेशा घिसती है
समुद्र किनारे की रेत ओर चट्टानों
के बीच
इच्छाओं के घर्षण से



तीन ....      

वैश्वीकरण


बाजार मुझे उस जंगल की तरह लगते हैं
जिनके भीतर घुसते ही वो तमाम
हरियाली,कीट पतंगे ,पशु पक्षी ,खूंखार जानवर
सूखे ज़र्ज़र दरख्त,पोखर ,कलरव करते बेसब्र परिंदे  
सब कुछ 
मेरे ही अस्तित्व का एक अंश हो जाते हैं 
या मै उनकी चेतन्यता का साक्ष्य ...
तेज़ी से पीछे छूटते जाते हैं गुनगुने उच्छ्वास
बुद्धत्व के ...
रक्ताणुओं को
मस्तिष्क की ओर ले जाती हुई धमनियां
एंठने लगती हैं
खोने लगती हैं अपना लचीला पन
फेंफडों की ऊधा सांसी में भरने लगती हैं कुछ
अतिरिक्त अ-संभावित् ,विवशताएं  
जैसे ,माँ के गर्भ से बाहर आते ही
कोई सचझूठ में अपना रास्ता टटोलने लगता है  
सपनों ,इच्छाओं और विवशताओं के  
पसीने से लथपथ भीड़ भरे
बाजार ...जहाँ
चेहरों के मूल्यहीन होने से पहले
खोना लाज़मी है उनके पैरों की छाप
और उसके भी पहले
उनके वुजूद का खंड खंड हो जाना  
बाज़ार का ये नियम उतना ही दीगर है जितना
नयी भीड़ का आना और
बाज़ार का
एक बालिश्त और खिसक जाना
वैश्विकता की ओर  


                                           


चार .....    

सच मानो 

दीमकों
बहुत चाट चुकी  
ज़रूरी किताबें ,उपयोगी वस्त्र
दरवाजे,खिड़कियाँ खेत खलिहान
दरख्त ,जंगल के जंगल पचा भी चुकी हो
अपने इस छोटे से पेट में
कभी उन धर्मग्रंथों ,पुराणों जातिवादिता,वर्ग विभाजन के सड़े गले इतिहास  
न्याय प्रणाली और राजनीति शास्त्र की मोटी मोटी किताबों
की तरफ भी तो रुख करो
जो भरे पड़े हैं झूठे और नुकीले निरर्थक शब्दों से
स्त्री की दुर्दशा और आम आदमी पर हुए अन्यायों के
खून के धब्बों से रंगे हुए पन्ने इतिहास के
जिन्हें पढ़ पढकर ना जाने कितनी पीढियां
अपनी गुलामी की निरीह खोह में
सर छिपाती रहीं ,
सच मानों ...
तुम्हारा उन्हें चाट जाना
उन दरिद्रों गरीबों दलितों व औरतों के हक में होगा
जो ना शब्द जानते ....
ना उनका पढ़ा जाना
लेकिन उनका लुप्त हो जाना ज़रूर
उनकी मुस्कुराहट की वजह बनेगा
सच मानों ....



पांच ......     

विद्रोह

अलसुबह
अंधेरों को सरका कुछ दिनों से   
आती हैं आवाजें चीखने की ...
घुस जाती हैं तीर की तरह
नींद की शिराओं में
और घुलने लगती हैं खीझ बनकर
समूची चेतना में
आवाजें ....
जो ना होती हैं गायत्री मन्त्र की 
ना माता के किसी जगराते की
किसी रोते कुत्ते बिल्ली की अपशगुनी सी भी नहीं कि
चुप करा दिया जाय उन्हें दुत्कार कर  
ध्यान से सुनों तो ये आवाजें लगती हैं पहले
सामूहिक विलाप सी पर धीरे धीरे तड़कने लगती हैं
सन्नाटों के बीच से उनकी सूखी त्वचा   
दिखने लगती है दुबली पतली नस नाड़ियाँ
तनती हुई गले के इर्द गिर्द   
किसी जुलूस या धरने से आती
बिलखती मरियल सी आवाजें ...भाषण नारे ..
नारों का सिर्फ इतिहास ही नहीं
डील डौल भी होता है गरिमामय
नारे आव्हान होते हैं नारे धमकी और विरोध होते हैं
नारों के लिए ज़रूरी है एक दमदार रोष
बुलंद आक्रोश ,
आसमान को देखती भरी हुई आँखें और
तनी हुई मुट्ठियाँ 
लेकिन ये आवाजें ?....
नारे जो उतने ही ज़र्ज़र  
और आउट डेटेड हो चुके हैं इनके
जितने उम्मीद की आँखों में सूखते
उनके सपने  
‘’जो हमसे टकराएगा ,मिट्टी में मिल जाएगा
वो अभी तक नहीं जानते कि
किन पत्थरों के टकराने से
झरती है मिट्टी किसके शरीर से ?
आवाजें ...
जो निरंतर और क्रमशः बुझती जाती हैं
सुबह के कोलाहलों में
सुना है कि बेदखल कर दिया गया है
एक सौ बीस चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को
अस्सी बरस पुराने उस
बड़े संस्थान के होस्टल मैस से
हवा है कि  
आ रहे हैं शेफ किसी होटल मेनेजमेंट के डिग्री धारी
बनायेंगे जो नई नई डिशें छात्रों के लिए   
कहा ये भी जा रहा है कि नहीं भाता नए छात्रों को खाना अब
उन पुराने हाथों का
,वही पुराना देसी स्वाद ,परोसने की पुरानी स्टाईल
अन हाइजीनिक ,पसीने से लथपथ  
अब नया ज़माना है नए तरीके, नए उपकरण
नए स्वाद, रंग बिरंगे ,नयी पोशाकें
पर आवाजें जो गले से उठ रही हैं वो
बहुत पुरानी  
और थकी हुई हैं
जिन्हें नहीं रहा भरोसा अपनी परम्परागत
ईमानदारी,निष्ठा और काबीलियत पर अब
आवाज़ों की पीठ से झांकते सपने  
 कोई तीस कोई चालीस बरस पुराने  
छोड़ आये थे जो पहाड़ों को बिलकुल
तनहा सुनसान बिलखता हुआ
समेट लाये थे अपनी धरती अपना आकाश इन सपाट मैदानों में
 गाड़ लिए थे ज़मीन में अपने अपने सपनों के खूंटे
इच्छाओं की नीव पर एक एक ईंट जमाकर रख दी थी
उम्मीदों की
एक ही झोंके में उड़ गए उनके टीन टप्पर
पूछो उन निष्कासित रसोइयों से कि
इतना अपनापा भी भला किस काम का गैरों से  
कि भोजन के साथ रोज़ मिला दिया जाए प्यार  
सब्जी में नमक की तरह
इस अहसानफरामोशी के फैशनपरस्त वक़्त में?
इन देसी रसोइयों के आने के समय नहीं थे ये पाक क्रिया के स्कूल
ना थी बर्तन धोने की मशीनें
मिक्सी ,माइक्रोवेव ओवन,तो छोडो
तब तो गैस चूल्हे भी नहीं थे   
सुलगते थे अंगारे भट्टियों में
जो उस वक़्त लगते थे रोशनी
आग तो बाद में हुए




परिचय और संपर्क

वंदना शुक्ल


भोपाल में रहती हैं
कथाकार और कवयित्री
देश की सभी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित
कुछ रचनाएं प्रतिष्ठित पत्रिकाओं के आगामी अंकों के लिए स्वीकृत
रंगमंच व संगीत में गहन रूचि 
पहला कहानी संग्रह “उड़ानों के सारांश” अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित और चर्चित



3 टिप्‍पणियां:

  1. विद्रोह और वैश्वीकरण कवितायें विशेष तौर पर अच्छी लगीं। वन्दना जी को बधाई एवं आपका आभार।

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  2. पहलीबार वंदना जी की कविताओं को पढ़ा और इनकी कविताई से प्रभावित हुआ। यह अवसर उपलब्ध कराने के लिए भाई रामजी को सबसे पहले धन्यवाद। वंदना जी की ये कविताएँ मुझे अच्छी इसलिए लगीं कि इनमें यथार्थ को काव्यसंवेदना में बदलने का हुनर तो मौजूद है ही, काव्यभाषा पारदर्शी और तरल है। विचार ही नहीं अनुभव के स्तर पर भी इन कविताअें में अपने परिवेश की गूँज है। वंदना जी को उनकी कविताओं के लिए बहुत बधाई।

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  3. मैंने पहली बार जी की कवितायेँ पढ़ी हैं ,कवितायेँ में काफी गंभीरता है

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