शुक्रवार, 15 मार्च 2013

एक कविता श्रृंखला ''इतना भी न हुआ'' - नीलकमल



                                  नीलकमल 


नीलकमल की कविताएँ कथ्य और शिल्प दोनों ही स्तरों पर हमें झकझोरती हैं | इनमे उठायी गयी बातें हमारे जीवन और समाज से इतनी करीब होती हैं , जैसे यह अपना ही भोगा , सोचा और कहा हुआ लगता है | फिर नितांत पद्यहीन और अतुकांत हो चुके दौर में , जब नीलकमल एक विशिष्ट लयात्मकता के साथ अपनी कविताओं में सामने आते हैं , तो जैसे उस अपने लगने वाले कथ्य को अपना दिल और अपना विवेक भी मिल जाता है | जाहिर है , किसी भी लेखक के लिए सबसे सार्थक बात यही होती है , कि वह अपनी बात को पाठक के भीतर इस गहराई से पहुंचा पाए | यहाँ प्रस्तुत कविता श्रृंखला इतना भी न हुआ में नीलकमल इन्हीं विशिष्टताओं के साथ मौजूद है |
                    
   प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर सुपरिचित युवा कवि नील कमल की यह कविता श्रृंखला  


                              ‘इतना भी न हुआ..’

                                          (एक कविता श्रृंखला) 


(एक)

जीने की तरह जीना, मरने की तरह मरना
इतना भी न हुआ..
कि बोलूं तो सुना जाऊं दूर तक
चलूं तो पथ में न आएं बाधाएं
गाऊं अपनी पसन्द के गीत कभी भी
बनाऊं कहीं भी सपनों का नीड़
इतना भी न हुआ.. न हुआ इतना भी
कि विश्वास के बदले पाऊं विश्वास
श्रम के बदले रोटी-पानी ।


(दो)

गहराती रात जैसी नींद से निकल
पलकों की पीठ पर
सपनों की गठरी लिए
चल पड़ूं उछलता-कूदता
न हुआ इतना भी, इतना भी न हुआ..

बांझ कोख सी उदासी में
डूबी है दुनिया
जिसकी बेहतरी की उम्मीद में
जागती आंखें झुकी रहती हैं
क्षमा-प्रार्थना की मुद्रा में इन दिनों
होठों से धीमे- धीमे
निकलता है स्वर,
क्षमा ! क्षमा ! बस क्षमा !!
कहते हैं हम एक-दूसरे से ।


(तीन)

क्षमा हे पितरों
तार नहीं सके हम तुम्हें
मुक्त न कर सके तुमको
आवागमन के दुश्चक्र से
कुन्द पड़ चुके हमारे इरादे
कौंधते और बुझते रहे अंधेरों में
हमारी स्मृतियों की गंगा में
आज भी तैरते हैं शव तुम्हारे
जिन्हें खींच कर तट पर लाएं
यह साहस हम जुटा ही नहीं पाए ।

क्षमा हे पृथ्वी
जल पावक गगन समीर
तुम्हारी विस्फोटक रोशनी में
चमक न सके हम कुन्दन बन
कात न सके चदरिया झीनी,
मिठास बिना ही ज़िन्दगी जीनी
नागवार हमें भी गुजरती थी,
                                            

(चार)

क्या करें,
कि एक शीर्षक-हीन कविता थे हम
पढ़े जा सकते थे बिना ओर-छोर
कहीं से भी, बीच में छोड़े जा सकते थे हम,
ज़िल्दों में बन्द, कुछ शब्द,
हमें पता नहीं था
आलोचकों की भूमिका के बारे में    
जैसे पता नहीं था पितरों को                        
मुक्ति का खुफ़िया रास्ता ।

एक शब्द चमक सकता था
अंधेरे में जुगनू बन
एक शब्द कहीं धमाके के साथ
फट सकता था
सोई चेतना के ऊसर में
एक शब्द को लोहे में
बदल सकते थे हम
धारदार बना सकते थे उसे
हमसे नहीं हुआ इतना भी,
इतना भी न हुआ..


(पांच)  

क्षमा ! हे शब्द-ब्रह्म, क्षमा !!
बहुत पीछे छूट चुका बचपन
ठिठका खड़ा है
अन्धे कुंए की ओट पर
विस्फ़ारित मुंह उस कुंए के
एक अधर पर धरे पांव
अड़ा है,
कहां है सुरसा मुंह कुंए का
दूसरा अधर
शून्य में उठा दूसरा पांव
आकाश में लटका पड़ा है ।

समय की तेज रफ़्तार सड़क पर
कई प्रकाश वर्ष पीछे
ठिठका खड़ा बचपन
भींगता है अदद एक
बरसाती घोंघे के बिना
गल जाती हैं किताबें
स्कूल जाने के रास्ते में
खेत की डांड़ पर
भींग जाता है किताबों का बेठन,
किताबों से प्रिय थे जिसे
इमली बेर आम चिलबिल
और रेडियो पर बजता विविध-भारती
उस बचपन से क्षमा,
कि हम अपराधी उस बचपन के
कुंए की तरह खड़े रहे हम
उसके रास्ते में
बिछ सकें नर्म घास की तरह
उभर सकें पांवों तले
ज़मीन की तरह
न हुआ इतना भी, इतना भी न हुआ.. ।


परिचय और संपर्क
           
नील कमल

जन्म- 15-08-1968 (वाराणसी , उत्तर प्रदेश)
शिक्षा- गोरखपुर विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर ।
सम्प्रति- पश्चिम बंगाल सरकार के एक विभाग में प्रशासनिक पद पर कार्यरत
कविता संग्रह- "हाथ सुंदर लगते हैं" 2010 में कलानिधि प्रकाशन , लखनऊ से प्रकाशित एवम चर्चित
हिंदी की सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ व स्वतन्त्र लेख
बांग्ला भाषा में भी कुछ छिटपुट कविताएँ व प्रकाशित ।
सम्पर्क - 244 , बाँसद्रोणी प्लेस , कोलकाता- 700070.
मोबाइल -  09433123379
                                          



6 टिप्‍पणियां:

  1. नीलकमल जी को पहली बार पढ़ा ...और सच कहता हूँ कि मुरीद हो गया .

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  2. नीलकमल को बहुत बधै।अनुभूति और संवेदना की अभिव्यक्ति खूबसूरत है। अन्दर तक छूओ जाती हैं ..

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  3. Bahut khoobsoorat kavitayein, bahut umda moolyankan hamari karni, dharni, soch, aur value systems ka. Ek ya kai sabhyataon ke sankat ki chetawani in kavitayon mein, kavya shakti ko itni khoobsoorati se ubharne ke liye badhai

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  4. नीलकमल जी मेरे प्रिय कवियों में से एक हैं. इस कविता में जिस तरह लुप्त हो चले छंद को नीलकमल ने साधा है वह हमें आश्वस्त करता है. ‘न हुआ इतना, इतना भी न हुआ’ लगता है जैसे नीलकमल ने हमारी अपनी ही बात को जुबान दे दिया हो. नीलकमल को शुभकामनाएं एवं सिताबदियारा का आभार.

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  5. बहुत सुंदर पूरी श्रृंखला ...एक से पांच तक ...पहली , दूसरी और तीसरी कविता को कई बार पढ़ गया ....

    आभार.
    -नित्यानंद गायेन

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  6. "सिताब दियारा" के प्रति आभार सहित नीरज शुक्ल , अग्निशेखर , पंखुरी सिन्हा , "पहली बार" और नित्यानन्द गाएन की टिप्पणियों के लिए विशेष धन्यवाद ।

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