शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

वंदना शर्मा की कवितायें


                                                                          वंदना शर्मा 


समकालीन हिंदी साहित्य अपनी जनतांत्रिकता की वजह से आज विशेष चर्चा में है | सवाल वहाँ से उठाये जा रहे हैं , जिन्हें अब तक केवल सुनाया जा रहा था | इन्हीं हाशिए के लोगों द्वारा समाज की मुख्यधारा से पूछा जाने वाला सवाल आज कविता की विधा में भी अपनी संपूर्ण  मुखरता के साथ उभरा है | वह चाहें दलित चेतना हो , या हमारे समाज की आधी दुनिया की तरफ से किया जाने वाला संघर्ष हो , प्रश्न सीधा और सटीक है | “यदि मैं चाहूँ इन कथाओं को उलट दूँ” | ‘तब’ ....? “एक मौत मरने से पहले यदि वह जीना चाहती हो” .... ‘तब’ .....?  ....यही ‘तब’ हमारे सामने दर्पण बनकर खड़ा हो जाता है | इन सवालों को जब नाक – भौं सिकोड़ने शुचितावादियों के सामने दर्पण बनाकर रखा जाता है कि ‘ऋषियों के भेष में लकड़बग्घों का बारात ही मिलती है” , तो वे भी बगलें झाँकने लगते हैं | जाहिर है कि ये  सवाल  ध्वंस और नकार के  सवाल  नहीं , वरन समाज को समतापूर्ण , न्यायपूर्ण और गरिमामय बनाने की आवाज है |
                             
‘सिताब दियारा’ के इस मंच पर इन्ही आवाजों में से एक और हमारे समय की चर्चित युवा कवयित्री ‘वंदना शर्मा’ की इन चार कविताओं को हम प्रस्तुत कर रहे हैं  | देश की सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं और ब्लॉगों की दुनिया में अपने भिन्न प्रतिरोधी तेवरों से अलग स्थान बनाने वाली इस आवाज को आपके सामने रखते हुए यह ब्लाग गर्व का अनुभव कर रहा है  | ........रामजी तिवारी 




तुमसे नहीं कहा गया है यह सब


भीगे एकांत से ठीक बाद की यात्राएं थकान के सिवाय कुछ नही देती
सर मुड़ाते ही ओले पड़ना ऐसी ही अकेली यात्रा के
अंत का मुहावरा होगा ..
कुछ नीरव प्रदेशों के सम्मोहन बहुत गहरे होते हैं
मदिर निद्रा ताउम्र जी जाना अधूरापन है तो है
संबंधो के ज्ञात अज्ञात रेखांकन भी निर्जीव चित्र के सिवाय कुछ नही होते
क्यों कि सारे विस्तार और गहराइयों के मापक यंत्र नहीं बने हैं
सच है कि इन नक्षत्रों में दिपदिपाहट ही आश्वस्ति है
दुर्दिनो के बाद भी कितना पूरा होता है आकाश ..
बहु संख्यक अंधेरों में जुगनू तक नही आते आजकल
किन्तु मूर्खताओं से खुद को बरी करना मेरे लिए कठिनतम कार्य होगा
तुमसे नही कहा गया है यह सब ..
आजकल किसी बात पर झगड़ते तक नही हैं हम दोनों 



2..         मैं कल्पनाओं से ख़ारिज स्त्री

 

मै कल्पनाओं से खारिज स्त्री
कठिन मार्गों से नदारद तुम पुरुष
निस्पृह भाव पराई औरत सा पराये मर्द सा नागवार स्पर्श
तप रहा है सूर्य, स्थिर हवा ..
बंद आँखों तृप्ति में यदि मै नही हूँ तुम नही हो स्वप्न में
तब यह क्यों होना चाहिए कि मै तुम्हारी प्रतीक्षा मिलूँ

थामे सप्त्पदियों की शिलाएं
कैक्टस सी अड़ी हैं रिक्तियां
कुकरमुत्ता सा मेरा अस्तित्व
घूरे पर ..
उन्नत खडा है
शहजादा चलता था,जहाँ तहाँ खिल जाते चम्पई फूल
रोती है लड़की बीर बहूटी सी झौपडियो में बंद महल में
यदि मै चाहूँ इन कथाओं को उलट दूं
तब यह क्यों होना चाहिए कि मै तुम्हारी प्रतीक्षा में मिलूँ

बहुत कठिन होता होगा यह राज वधू होना
बहुत दुखद है सुन्न हो जातीं हैं संवेदनाएं कोढ़ सी
कितनी पकाऊ हैं पुनर्जन्मो की कथाएं भी
आओ यंत्रणाओ के चरमोत्कर्ष से बचे हम
हरम जागीरों रखैलों की व्यवस्था खत्म हो
यदि मै जीना चाहती हूँ ग्रीष्म में शरद,शरद में ग्रीष्म सा कुछ
तब यह क्यों होना चाहिए कि मै तुम्हारी प्रतीक्षा में मिलूँ .....



3..                     मुझे भी जीना है

एक दूसरे से पीठ किये
दो स्वप्निल सरोवर
उड़ रहें हैं ...
इस तरफ कमल जितने खूबसूरत हैं
उतनी ही आत्मिक है इनकी गंध
रास्तों पर बहुत घनी है कीचड़
इधर खतरा अधिक है
सुख बहुत कम ...

बहुत संभव है... 
एक दिन तुम खाली हाथ लौटो 
तब ये नरमाई नही रहेगी
फिर से कुतरे जायेंगे पर..
डस लेंगी जिद्दी अमरबेल 
कल्प वृक्ष की हरीतिमा
जो मेरे नाम पर शुरू और ख़त्म है

चख चुके है उड़ानों के उत्ताप 
इसलिए अब यह तय है ...
मै अपने पैरों को और नही बंधने दूँगी
यदि मेरे हिस्से भी आया है अनंत सुख
और महावट- वृक्ष ..
तब एक मौत मरने से पहले
वह मुझे जीना है ......



4..      घायल बाघिनो से पार पाना लगभग असम्भव है

·                     किसी स्त्री को तेज़ाब बना डालने के लिए इतना काफी है ..
कि छुरा भौंक दिया जाए बेपरवाह तनी पीठ पर
और वह जीवित बच जाए ..
उसे विषकन्या बनाया जा सकता है
करना बस इतना है
कि आप उसे बहलाओ फुसलाओ आसमानों तक ले जाओ 
भरपूर धक्का दो ...
और वह सही सलामत जमीन पर उतर आये
नग्न कर डालने के लिए इतना बहुत 
कि श्रद्धा से बंद हों उसके नेत्र 
और आप घूर रहे हों ढका वक्ष...
बहुत आसान है उसे चौराहा बनाना,पल भर लगेगा, खोल कर रेत से 
बाजार में तब्दील कर दो, सुस्ता रहे सारे भरोसे बंद मुट्ठी के...

निरर्थक हैं ये बयान भी किसी स्त्री के
कि सच मानिए, कोई गलती नही की,प्रेम तक नही किया, सीधे शादी की
पर मै कभी टूटती नही कभी निराश नही होती
एक स्त्री ठीक इस तरह जिए, फिर भी वह सिर्फ स्त्री नही रहती
यह इतना ही असम्भव है जितना असम्भव है
एक लाठी के सहारे भरा बियावान पार करना..

इस लाठी पर भरोसा भी आप ही की गलती है
आप ये सोच के गुजरिये ...
कि ऋषियों के भेस में लकड़बग्घों की बारात ही मिलती है
और बहुत समय नही गुजारा जा सकता ऊँचे विशाल वृक्षों पर
मजबूत शाखाओं के छोर ...
अंतत: मिलेंगे लचीले कमजोर, तनों में ही छुपे होंगे गिद्ध मांसखोर

और ये गिलहरी प्रयास भी कुछ नही हैं,तुम्हारी अनुदार उदारताओं के ही सुबूत हैं
मसले जाने की भरपूर सुविधाओं के कारण ही,सराहनीय हैं चींटी के प्रयत्न..
बाकी सब जाने दीजिये,सेल्फ अटेसटिड नही चलते चरित्र प्रमाणपत्र
अस्वीकृति की अग्नि में वे तमगे ढाले ही नही गए
जो सजाये जा सके स्त्री के कंधो पर ..

बिखरी हुई किरचों के मध्य आखिर कहाँ तक जाओगी
भूले हुए मटकों में ही छुपी रह जायेंगी अस्तित्व की मुहरें
तुम्हारे जंगलों के मध्य से ज़िंदा गुजरना,वाकई बहुत बहुत कठिन हैं 
किन्तु इन हाँफते हुए जंगलों के बीच से हीफूटते हैं गंधकों के श्रोत
काले घने आकाश में भी जानते हैं इंद्र धनुष, अपना समय 

जानती हूँ आप इसे यूँ कहेंगे
कि हथौड़ों के प्रहार से और भी खूबसूरत हो जातीं हैं चट्टानें
मै इसे यूँ सुनूँगी
कि घायल बाघिनो से पार पाना लगभग असम्भव है




14 टिप्‍पणियां:

  1. युवा कवियित्री वन्दना शर्मा की कवितायें आधी आबादी के जज्बातों को शिद्दत से हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं. इनके बिम्बों का नयापन सहज ही ध्यान आकृष्ट करता है.

    आओ यंत्रणाओं के चरमोत्कर्ष से बचे हम
    हरम जागीरों रखैलों की व्यवस्था खत्म हो
    यदि मैं जीना चाहती हूँ गीष्म में शरद, शरद में ग्रीष्म सा कुछ
    तब यह क्यों होना चाहिए कि मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में मिलूँ

    इन पंक्तियों में हमारे समय की एक कवियत्री का खुला उद्घोष है यह, जिसमें वह अपना जीवन अपने तरीके से जीने की बात करती है. यहाँ यह ‘अपना’ केवल एक का निज नहीं बल्कि यह स्त्री जगत की सार्वभौमिकता से सीधे सीधे जुड कर सम्पूर्ण विश्व की स्त्रियों की समवेत आवाज बन जाता है. वंदना को बधाई एवं सिताब दियारा का आभार बेहतर कविता पढवाने के लिए.

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    1. vandana ke paas tapta hua muhavra hai .. unki kavitaen kuchh aisi jaise bhomadhy rekha par baar-baar hone wali barish ..unki saghnta ke bheetar keval akrosh nahi hai ..badlaav ki anivaryta wahan dikhai deti hai .
      in kavitaon ko sajha karne ke liye Ramji ka abhaar.

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  2. समय और कथित पुरुष की हकीकत को उधेड़ती हुई एक से बढकर एक कविता है .हर कविता पढकर ठिठकने ,सोचने को मजबूर करती हुई गहरी नींद से जगाती है .समकालीन समय को कविता में उतारने के लिए बधाई .....कैलाश वानखेड़े

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  3. कविता को ठोस धरातल देती कवितायेँ
    =========================



    वंदना शर्मा की चार कवितायेँ पढ़ लेने के बाद एक स्वाभाविक प्रश्न मन में उठ रहा था कि क्या हमारे हिंदी के कवियों में इस स्तर की संवेदनाएं और सामजिक चेतना मौजूद है ?यक़ीनन हमारा लेखन भी यांत्रिक सा ही हो गया है ,उसमे न तो भावनायों की प्रवणता है और न ही वर्तमान से मुखातिब होने की क्षमता .लेकिन इस दौर में भी वंदना का लेखन न सिर्फ आश्वस्त करता है बल्कि दिशाबोधक की भूमिका भी निभाता है .मशाल मजबूती से हाथों में थामे है वंदना की कलम .'ऋषियों के भेस में लक्कड़बघों की बारात मिलती है' की घोषणा करने के लिए गहरे सामाजिक अध्ययन की ज़रूरत के साथ ही व्यवस्था के प्रति आक्रोश की भी दरकार होती है जो वंदना की कवितायों में सहज ही मुखरित हो जाता है .'नग्न कर डालने के लिए इतना बहुत है /कि श्रधा से बंद हों उसके नेत्र और आप घूर रहे हों ढंका बक्ष' कहकर समाज को आईना दिखा देने की जुर्रत कितने लेखकों में बची है ?'मसले जाने की भरपूर सुविधायों के कारण ही /सराहनीय हैं चींटी के प्रयास 'में जो ध्वनि उठती है वो हमारे वहरे वक्त के लिए कितनी ज़रूरी है इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है .वंदना शर्मा के लेखन में मौजूद संभावनाएं आशवस्त करती हैं कि इस बिद्रूप समय में भी प्रकाश के जुगनू चमक रहे हैं .इस प्रयास को सलाम . परमानन्द शास्त्री

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  4. बहन वंदना की कविताओं ने अपने लिए नए बिम्ब ,नए मुहावरे और बिलकुल अकल्पनीय बेबाक तेवर गढे हैं .....अभिव्यक्ति की ये 'रा ओरिजिनालिटी ' बिलकुल विस्मित करती है ......नई सदी की नई स्त्री का बोल्ड आत्मकथ्य सा है यह .. ---संतोष चौबे

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  5. सच बात लिखूं तो मै विस्मित सा हूँ कितने सधे लहजे में सामने से सवाल करती सच को मुंह पर दे मारती कवितायेँ जो बार बार पढने को मजबूर कर देती हैं हलचल मचा देती हैं दिमाग में ..नहीं तो कितना कुछ उलटा जा रहा है फेब बी पर आजकल कविता के नाम पर ..आपका धन्यवाद राम जी और बधाई हो वंदना जी.......अलख पाण्डेय

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  6. अभी किसी पत्रिका के लिए वंदना शर्मा की कविताओं पर एक टिप्पणी लिख रहा हूँ...उसी की एक पंक्ति -- "वंदना शर्मा ने स्त्री विमर्श के चालू मुहाविरे को बेतरह ध्वस्त करते हुए रिरिआहट और क्रन्दन के स्वर को चुनौती और संघर्ष के स्वर में तब्दील किया है. ज़ाहिर है जिनको स्त्री से इस स्वर में सवाल और जवाब सुनने की आदत नहीं, उन्हें यह शोर भी लग सकता है और अशोभन भी. लेकिन ऐसा लगना शायद कवि का प्रयोजन भी है और सफलता भी. एक और महत्वपूर्ण बात यह कि समय के साथ-साथ यह स्त्री-प्रश्नों के बहाने समाज की वृहत्तर चिंताओं से भी जुड़ता है और इस तरह विमर्शवादी धारा को भी चुनौती देता सा लगता है. मैंने इसे बेहद आशा की नज़र से देख रहा हूँ"

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  7. आज के दौर की स्वाभिमानी स्त्री जब अपनी संपूर्ण संवेदनाओं और अनुभवों को समेटकर समाज से उसी की भाषा में बिना किसी लाग-लपेट के सीधे प्रश्न करती है तो स्वयंभू और नारेवादी टाइप के लोगों में बैचेनी छा जाती है, कौन हमारी सुविधाजनक स्थिति और बड़े होने पर प्रश्न खड़े कर रहा है, कविता लिखने के लिए इतना अधिक संवेदनशील होना जरूरी है क्या और कोई तरीका नहीं बचा है अपने को प्रसिद्ध कवि/कवयित्री कहलवाने का, इस तरह के प्रश्न जब उठने लगें तो समझ जाइए कि कोई आ गया है अपनी मौलिक और बेबाक रचनाओं के साथ, इस नेट-जेट एज में जहाँ कविताएं पढ़ना कूल ना लगता हो हो वहाँ वंदना जी की कविताएं आपको अपनी तरफ बरबस खींच लेती हैं, ऐसी कविताएं हैं वंदना जी की जो आपको सोचने और समझने पर विवश कर देंगी...आप आस-पास की आसानी से नजरअंदाज हो जाने वाली घटनाओं को महसूस करना शुरु कर देंगे...वंदना शर्मा जी की आगामी कविताओं के लिए अग्रिम बधाई, सिताब दियारा के माध्यम से वंदना जी की कविताओं को प्रस्तुत करने लिए रामजी तिवारी जी का ह्रदय से धन्यवाद....

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  8. दिन प्रति दिन वंदना जी के लेखन में रूचि और उसको जो पर्कत्य /अभिव्यक्त करती जा रही है उसका में कायल हूँ ......स्त्री दशा पर पुरुष समाज की फितरत और उसकी चालों का बहुत तीखा कटाक्ष और उसके मर्म को शब्दों में शब्दों में जिवंत करने का बेबाक तरीका बहुँत सटीक होता जा रहा है ...बहुत बहुत बधाई वंदना जी ....बहुत शुक्रिया ..निर्मल पानेरी

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  9. मर्दानी भाषा से नज़रें मिला कर बोलने की कोशिश वन्दना शर्मा को उन का अपना खास लहज़ा बख्शती है ..!यानी कोशिश फिर भी बोलने की हैं , झगड़ने की नहीं .झगडने वाला अंदाज़ अकविता- वादी कवयित्रियों का था . अब उस तरह की तेजाबी भाषा न दुहराई जा सकती है , न जरूरी है. यह अच्छा है कि इधर उभर कर आयी कवयित्रियों को संवाद की जरूरत का कमोबेश अहसास है . जिद उन की इतनी जरूर है कि संवाद होगा तो बराबरी का.

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  10. वंदना दी की कवितायेँ समाज को आइना दिखाती हुई प्रतीत होती हैं.....अपने हक की भीख नहीं मांगती वरन गिरेबान पकड़ कर झकझोर देती हैं, ये बेबाकी और तेवर सलामत रहे ....बधाई .......

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  11. ek satri kee bebaak swabhimaan se labrez kaviteyn, shukariya tiwari jee ethee badhia kaivtao se rubru karwane ke leye

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  12. वन्दना की कविताओं ने शुरु से आकृष्ट किया, अब वे अपने परिपाक की ओर बढ़ चली हैं. वन्दना की कविताओं में प्रेम का मुहावरा बड़ा अनूठा है, अपनी शर्तों पर किया और जिया गया...' मैं कल्पनाओं से खारिज स्त्री' निसन्देह बहुत हतप्रभ करती है. बेबाकी और तेवर से परे मैं यहाँ भाषा की बहुस्तरीय व्यंजना को, अनूठे मौलिक प्रयोगों को देख पाती हूँ.

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  13. बेनामी3:40 pm, मई 21, 2013

    कस कर तमाचा मारने के बाद का अहसास करातीं कवितायेँ ....निर्भीकता की तलवार थामे आगे बढ़ते रहने के लिए शुभकामनायें वंदना जी ....

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