आज सिताब
दियारा ब्लॉग पर ‘बिजली कथा’ की यह चौथी क़िस्त
बिजली कथा – 4
कल के समाचार-पत्र में उत्तर-प्रदेश के
मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव का साक्षात्कार छपा है | उन्होंने दावा किया है कि
प्रदेश में बिजली की स्थिति में काफी सुधार हुआ है | और इन पिछली गर्मियों में
हमारी सरकार ने प्रदेश वासियों को बहुत अच्छी बिजली की आपूर्ति की है | अच्छा है...... |
इस दौर के राजनेता को इतना झूठ बोलना आना ही चाहिए | इससे कम झूठ में में हमारा
समाज संतुष्ट नहीं हो पाता | बेशक कि प्रदेश की जिस भी जनता ने वह साक्षात्कार पढ़ा
होगा, उसने इन दावों को अपने जख्मों पर ‘नमक-मिर्च’ के रूप में महसूस किया होगा |
खैर .... वादे के मुताबिक़ उस सच्ची कहानी पर आता
हूँ, जो इस तंत्र में एक सामान्य आदमी की जगह को बयां करती है | हमारे यहाँ
बिजली-तंत्र कैसे काम करता है, शायद उसे भी समझने में मदद मिले | तो साहेब .... आज
से सात-आठ साल पहले तक हमारे गाँव की बिजली आपूर्ति एक अन्य गाँव ‘उदयपुरा’ के
ट्रांसफार्मर से होती थी | वह ट्रांसफार्मर 63 के.वी.ए. का था और दो गाँवों का भार
एक महीने से अधिक कभी भी सहन नहीं कर पाता था | तो एक दिन उस दूसरे गाँव के लोगों
ने हमारे गाँव की बिजली काट दी | अब हम लोगों के गाँव में बिजली आने की बची-खुची आशा भी चली गयी | महीने दिन के
संघर्ष के बाद भी हमारा गाँव अपना कनेक्शन जोडवा पाने में असफल रहा | जब गाँव के
बड़े-बड़े महारथियों ने समर्पण कर दिया, तो हमारे जैसे छोटे-मोटे लोग भी अपना
हाथ-पैर चलाने के लिए बाहर आये | नीरज शेखर उस समय पहली बार सांसद बने थे | और
उनके बारे यह चर्चित हुआ था कि किसी भी काम को लेकर जाने में वे मदद जरुर करते हैं
| इसी चर्चा ने मुझें भी उनकी झोपड़ी के दरवाजे पर खड़ा कर दिया | (चंद्रशेखर जी
द्वारा बनवाये गए बलिया के महलनुमा घर को झोपड़ी ही कहा जाता है ) | मुलाक़ात हुयी
और मैंने अपनी फ़रियाद उनके सामने रखी | ख्याति के मुताबिक़ उन्होंने तुरत ही
अधिशासी अभियंता को फोन मिलाया | मेरी समस्या कही, और जल्दी समाधान का आग्रह किया
| हालाकि प्रदेश में उस समय उनकी विपक्षी पार्टी ब.स.पा. की सरकार बन चुकी थी |
अगले दिन मैं अधिशासी अभियंता के दरवाजे पर खड़ा
था | उन्होंने मुझे जोर की डांट लगाईं और कहा कि “इस जिले की नेतागिरी से परिचित होने के कारण आपको सलाह देता
हूँ कि समय रहते आप भी उससे परिचित हो जाइए | ये लोग आपकी समस्या का समाधान नहीं
करा पायेंगे |” मैंने चुपचाप उसकी
बात सुनी, और हां में हां मिलाते हुए लौट आया | लेकिन इस निश्चय के साथ कि अब मैं
रोज इनके दरवाजे पर हाजिरी दूंगा | हाजिरी पंद्रह-बीस दिन चली थी, कि उनकी
डांट-फटकार मेरे लिए सहानुभूति में बदलने लगी | उन्होंने अपने जे.ई. और लाइनमैन को
निर्देश दिया कि इन लोगों के गाँव का कनेक्शन जोड़ दिया जाए | वे लोग पहुंचे भी |
लेकिन जिस तरह पहुंचे, उसी तरह बैरंग वापस भी लौटा दिये गए | उस दूसरे गाँव के
लोगों ने कनेक्शन नहीं जोड़ने दिया | मैं अगले दिन फिर अधिशासी साहब के दरवाजे पर
खड़ा था | झुंझलाते हुए उन्होंने कहा कि आप एस.पी. साहेब से मिलिए | वे हमें पुलिस
फ़ोर्स दें, तब हम आपके गाँव के कनेक्शन को जोडवा पायेंगे |
इस बीच नीरज शेखर के हर बलिया दौरे पर मैं
उन्हें सलामी ठोकने जाने लगा था | दो-चार मुलाकातों के बाद अब वे मुझे कुछ-कुछ
पहचानने भी लगे थे | देखते ही सवाल दागते | “आपके गाँव की बिजली जुड़ी या नहीं |” मैं ना में सिर हिलाता | वे अपनी सरकार के नहीं होने का
रोना रोते हुए अधिशासी साहेब को फोन लगाते | इस बीच मैं अपने क्षेत्र की विधायिका
के दरवाजे पर भी पहुँचने की जुगत लगाने लगा | ब.स.पा के एक पुराने कैडर के साथी से
मेरी जान पहचान भी थी | वे बिचारे तैयार भी हो गए | लेकिन जब मैं उन्हें लेकर
विधायिका जी के दरवाजे पर पहुंचा, तो बहुत अपमानित महसूस हुआ | अपने लिए नहीं, वरन
उस कैडर वाले साथी के लिए | उस प्रयास में मैं अपना मान-अपमान भूल चुका था | हम
लोग वापस लौटे | ब.स.पा. के गठन से लेकर आज तक उसके साथ रहने वाले उन साथी की पीड़ा
जेनुइन थी | बहरहाल बिजली जोड़वाने का मेरा वह प्रयास भी खाली गया |
इस बीच इस काम ने मुझे बहुत फोकस कर दिया था | सोते-जागते
मैं इसी समस्या के बारे में सोचता रहता | किसी ने कहा कि यहाँ पर एक नए जिलाधिकारी
आये हैं | तो मैं उनके यहाँ भी चक्कर काटने लगा | तीन दिन के बाद वे मिले | मेरी
समस्या सुनी, और बगल के एक अधिकारी को मेरा आवेदन बढ़ाते हुए किसी जरुरी मीटिंग के
लिए विकास भवन निकल गए | उस बगल के अधिकारी ने मेरे उस आवेदन को अधिशासी अभियंता
को ‘मार्क’ कर दिया | मैं मुंह लटकाए पुनः अधिशासी साहेब के दरवाजे पर पहुंचा |
डी.एम. साहेब का ‘मार्क’ किया गया आवेदन मेरे पाकेट में था, लेकिन उसे निकालकर
दिखाने की जरुरी हिम्मत मेरे पास नहीं थी | | बाद में पता चला कि जिस वर्ष मेरा आठ
नंबर से सिविल सर्विसेज की मुख्य परीक्षा में चयन नहीं हुआ था, जिलाधिकारी महोदय
उसी वर्ष के आई.ए.एस. अधिकारी थे | कोई बात नहीं, जीवन इसी तरह से चलता है | यह भी
तो संभव है कि जिस वर्ष मैंने ‘किरानी’(क्लर्क) की परीक्षा पासकर यह नौकरी पायी
होगी, उस वर्ष मेरे से अधिक योग्य लोग चयन से वंचित हुए होंगे | है कि नहीं .... |
जरुर होगा ...|
तीन महीने का समय बीत चुका था | गाँव के लोग
सामूहिक रूप से कई बार मेरे साथ नीरज शेखर और अधिशासी महोदय के दरवाजे पर आ-जा
चुके थे | जब अधिशासी महोदय पर अधिक दबाव पड़ने लगा तो उन्होंने उस दबाव को हटाने
के लिए एक नुस्खा अपनाया | कहा कि आप लोग अपने-अपने कनेक्शन लाईये | मैं आपके गाँव
के लिए 25 के.वी.ए. का ट्रांसफार्मर एलाट कर दूंगा | शर्त यह है कि आपके गाँव में
कम से कम 20 रनिंग कनेक्शन होने चाहिए | “बीस रनिंग कनेक्शन .....?” मुझे लगा कि बाजी
हमारे हाथ में आने ही वाली है | सौ परिवारों वाले गाँव में 20 कनेक्शन तो आसानी से
मिल सकता है| क्योंकि बिजली तो सभी लोग जलाते हैं | लेकिन अधिशासी महोदय ने कच्ची
गोली नहीं खेली थी | हर दरवाजे पर दस्तक देनें के बावजूद हम लोग 8 रनिंग कनेक्शन
ही जुटा सके |
ऐसे में गाँव के लोगों के उस सुझाव पर मेरा भी
भरोसा चिपकने लगा कि उस दूसरे गाँव के दबंग लोगों के सामने जाकर चिरौरी-बिनती किया
जाए | शायद उनका दिल पिघल जाए | तो साहेब .... हम लोगों ने इस दिशा में प्रयास भी
किया | लेकिन कामयाबी नहीं मिली | अब उस दूसरे गाँव के लोगों ने यह कहना शुरू कर
दिया था कि आप लोग अपने गाँव के लिए अलग से ट्रांसफार्मर की मांग कीजिए | यही
समाधान है, दूसरा कुछ नहीं |
लेकिन जब हम लोग इस ट्रांसफार्मर में ही अपनी
लाइन नहीं जोड़वा पा रहे हैं, तब अलग से ट्रांसफार्मर लगाने लायक सोर्स कहाँ से
लायेंगे ..? आठ रनिंग कनेक्शन के बल पर अब कैसे अधिशासी महोदय का दरवाजा
खटख़टायेंगे ..? लग रहा था कि तीन-चार महीने की कवायद बेकार ही जाने वाली है | लगभग
एक सप्ताह के अंतराल के बाद मैं अधिशासी अधिकारी के दरवाजे पर फिर खड़ा था | मेरा
लटका हुआ मुंह बता रहा था कि मेरी जेब में कितने रनिंग कनेक्शन हैं | उन्होंने आज
इत्मीनान से मुझे बिठाया | चाय पिलायी | और जाते-जाते यह आश्वासन भी दिया कि मैं
आपके लिए कुछ न कुछ जरुर करूँगा | मैं दौड़ हार चुका था |
उसी महीने ‘यूनियन’ के काम से दिल्ली जाने का
अवसर हाथ लगा | और लगे हाथ मैंने नीरज शेखर के आवास 3 साउथ एवेन्यू का दरवाजा भी
खटखटा दिया | संसद का सत्र चल रहा था, इस नाते वे मिल भी गए | “अरे ... आप यहाँ ...?” उनका चौंकना स्वाभाविक था | फिर उन्होंने चाय पिलाई | मैं
लगभग चुपचाप ही रहा | और जब उठकर जाने लगा तो वे बाहर तक छोड़ने के लिए आये | सड़क
पर विदा करते हुए उन्होंने कहा कि “मैं अपने कोटे से
आपके गाँव के लिए 25 के.वी.ए. का ट्रांसफार्मर दूंगा | जाकर अधिशासी साहब से
स्टीमेट बनवा लीजिये | अगले हफ्ते मुझे बलिया आना है | मैं उसके लिए धन रिलीज कर
दूंगा |” थोड़ी दूर आगे बढ़ा
था कि पीछे से एक गाड़ी आयी | उसके ड्राइवर में मुझसे उसमें बैठने के लिए कहा | और
यह भी कि आपको छोड़ने के लिए सांसद महोदय ने आदेश दिया है | बताईये कहाँ जाना है | मैं उस गाड़ी से नयी
दिल्ली रेलवे स्टेशन आया, जहां से मुझे शाम को बलिया के लिए ट्रेन पकडनी थी |
बलिया पहुँचने के बाद की पहली सुबह जहाँ मुझे
होना चाहिए था, मैं वहीँ खड़ा था | अधिशासी महोदय मेरी बात सुनकर हँसे | और बोले कि
“मैंने आपके गाँव के लिए सिस्टम इम्प्रूवमेंट के अंतर्गत 63
के.वी.ए. का ट्रांसफार्मर लगाने का आदेश कर दिया है | फाइल कमिश्नरी आज़मगढ़ में गयी
है | आप एक बार वहां चले जाइए | काम हो जाएगा |” मैं भावुक हो गया | समझ में नहीं आ रहा था कि उनका कैसे
शुक्रिया अदा करूँ | खैर .... अगले दिन मैं आजमगढ़ में था | काम चुकि बिजली विभाग
में था, इसलिए पाकेट भी थोड़ा-मोड़ा गर्म करके गया था | लेकिन वहां के बाबू ने भी
मुझे चौंका दिया | उसने मेरे हाथ में आदेश की कापी थमाते हुए कहा कि आपकी कहानी
मैं जानता हूँ | और इस स्वप्निल कहानी का सफ़र बलिया के स्टोर रूम से सामान रिलीज
कराने तक जारी रहा |
लेकिन गाँव में सामान पहुँचने से पहले ही
समस्याएं पहुँच गयी थी | बेशक कि मैं कोई ‘जंग जीतकर’ गाँव नहीं आ रहा था, लेकिन
बिलकुल शून्य से शुरू करने वाला, और इसके लिए गाँव में मजाक का पात्र बन चुका मैं,
यह सब कैसे कर ले गया था, गाँव की महान आत्माएं इसे लेकर व्यथित थीं | ड्रामा शुरू
हुआ | ट्रांसफार्मर कहाँ लगेगा और किस रास्ते से हाई-टेंशन का तार आयेगा, इस लेकर
राजनीति शुरू हो गयी | हालाकि पहले मैं यह सोच रखा था कि गाँव में ट्रासफार्मर,
पोल और तार पहुंचाकर मैं परिदृश्य से हट जाउंगा | लोगों को अपने हिसाब से उसे
लगाने और सेट करने दूंगा | लेकिन बाद में पता चला कि यदि इस मसले को छोड़ दिया गया,
तो लोग बाग़ महीनों और वर्षों बिना बिजली के रह लेंगे, लेकिन उस पर होने वाली
राजनीति से बाज नहीं आयेंगे | बगल के गाँव के एक बड़े काश्तकार ने, जिनके खेत से होकर
पहले बिजली का तार आया था, अब कहना शुरू कर दिया था कि मैं अपने खेत से हाई-टेंशन
तार नहीं जाने दूंगा | बाद में पता चला कि उनकी महान आत्मा में यह सीख मेरे गाँव
के किसी महान आत्मा के जरिये पहुंची थी | उन्होंने लगभग दस-पंद्रह दिन अपने दरवाजे
पर दौड़ाया | खूब खरी-खोटी सुनाई | अंग्रेजो के जमाने के किस्से सुनाये, जिसमें
उनके दादा-परदादा ‘रायबहादुर’ हुआ करते थे और हमारा पूरा गाँव उनके अधीन हुआ करता
था | उनकी ऐंठन देखकर मैं समझ गया था कि बस इसे थोडा सा और वक्त देने की जरुरत है
| यह टूटकर बिखरने ही वाली है |
बहरहाल 110/70 का मेरा रक्तचाप उनके हर नखड़े को
उठाने के लिए माकूल अभ्यर्थी था | मेरे दिमाग में प्रत्येक हथगोला हमेशा ‘आफ-मोड’
में हुआ करता था | उनकी सारी शर्ते हमने मानी, और उतना आदर-सम्मान दिया, जिसके वे
कत्तई भी हकदार नहीं थे | बाद में पता चला कि उनके अहंकार ने वर्ष बीतते-बीतते
उन्हें अपने ही गाँव-जवार में बेईज्जत करा दिया | खैर हमने उन्हें पूरी इज्जत
बख्शी | और गाँव के हर उस महान आत्मा को इज्जत बख्शी, जिसकी कोप-दृष्टि इस ‘प्रयास’
पर पड़ रही थी |
लगभग छः महीने के बाद ट्रांसफार्मर लग गया | अगले
दो-तीन दिनों में लोगों ने अपने-अपने घर के पास पोल और तार भी दौड़ा लिए | अब किसी
को मेरी जरुरत नहीं थी | मैं भी थक चुका था | थोड़ा आराम करना चाहता था | और यह
बताते हुए थोड़ी शर्मिंदगी भी हो रही है कि वह आराम आज भी चल रहा है | हालाकि एक-दो
बार मैंने इस आराम को तोड़ने की कोशिश भी की | यह सोचकर कि जो तार लगभग एक किलोमीटर
घूमकर मेरे दरवाजे पर आ रहा है, और जिसके कारण बार-बार परेशानी बनी रहती है, उसे
सुधार लिया जाए | मैं ट्रांसफार्मर से 100 मीटर की दूरी वाले रास्ते से केबल के
जरिये अपने घर पर बिजली ले आया | मगर अफ़सोस .... कि मेरा वह तार तीन-तीन बार काट
लिया गया | अच्छा है ..... इस दौर में इतने सीधेपन की इतनी सजा तो मिलनी ही चाहिए
| क्यों ...?
बहरहाल इन आठ वर्षों और उसके पहले के कई आठ
वर्षों में हमारे क्षेत्र में कभी भी बिजली की चेकिंग नहीं आयी | बावजूद इसके गाँव
के आठ-दस लोग आज भी अपना बिजली-बिल जमा कर दिया करते हैं | बेशक कि इसके लिए वे मूर्ख
और महा-डरपोक भी कहलाते हैं | गाली भी खाते हैं और अपना तार भी कटाते हैं | लेकिन
यह सब कुछ सहते हुए कोशिश करते हैं कि यह तंत्र भी चलता रहे | अफ़सोस कि ऐसे मूर्ख
और डरपोक आदमी के लिए इस व्यवस्था में आज बहुत ही कम जगह बची हुयी है | लेकिन ख़ुशी
की बात है कि कम ही सही, लेकिन बची हुयी है | कोशिश कीजिएगा कि वह थोड़ी सी बची
हुयी जगह आगे भी बची रहे | और संभव हो तो वह थोड़ी विस्तृत भी होती रहे |
प्रस्तुतकर्ता
रामजी
तिवारी
बलिया,
उ.प्र.
व्यथित कर देता है यह आलेख😕😕
जवाब देंहटाएंमुर्ख और डरपोक आदमी के लिए इस व्यवस्था के जगह ही नहीं बची है ......
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