रविवार, 2 नवंबर 2014

"ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर" की दसवीं क़िस्त - अशोक कुमार पाण्डेय






इस संस्मरण के बहाने अशोक कुमार पाण्डेय अपने अतीत के दिनों को याद कर रहे हैं | उन दिनों को, जिसमें किसी भी मनुष्य के बनने की प्रक्रिया आरम्भ होती है | पिछली क़िस्त में उन्होंने विश्वविद्यालय में प्रवेश को लेकर हुयी कशमकश और उसमें डरते-सहमते प्रवेश करने को याद किया था | इस क़िस्त में वे अपने हास्टल के दिनों को याद कर रहे हैं, जिसमें पूर्वांचल के उस दौर के समाज का पता मिलता है .......
                        
         

        तो आईये पढ़ते हैं सिताब दियारा ब्लॉग पर अशोक कुमार पाण्डेय के
                                संस्मरण    
                             

                 
              ‘ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर’ की दसवीं क़िस्त


                
               महीने में दू से ज़्यादा फेयर एंड लवली नहीं...    


तो इस तरह इनवस्टी (आप यूनिवर्सिटी कहते होंगे भाई, हमारे गोरखपुर में इनवस्टी ही थी..है भी शायद) के दिन मजे में गुज़र रहे थे. बस आठ किलोमीटर दूर से साइकल चला के आना और फिर सात और किलोमीटर ट्यूशन पढ़ने जाना मारे डाल रहा था.चचा का घर छोटा सा था. लोग आते जाते रहते थे. अक्सर गाँव से कोई न कोई चला आता था. पढने में थोड़ी दिक्कत तो आती थी लेकिन चाची का स्नेह माँ की कमी न खलने देता. चाची गोरखपुर की ही थीं. उसी इनवस्टी से इतिहास की पोस्ट ग्रेजुएट थीं. उस समय अंशु कोई चारेक साल का रहा होगा. अर्पिता तो मेरे वहां जाने के बाद पैदा हुई. लेकिन चाची का व्यवहार मातृवत भी था मेरे लिए और मित्रवत भी. कालनी में आने जाने के लिए रेजिडेंट पास बनना था तो उन्होंने मेरा नाम “सन” वाले कालम में लिख दिया.बन्दे ने उम्र पूछी तो कहा सत्रह साल. चाची सताईस की रही होंगी तब. वह परेशान. कहा, सर की पहली शादी के होते तो भी पंद्रह से ज्यादा मुमकिन नहीं. तो मासूमियत से बोलीं, भतीजे और बेटे में क्या फर्क है. रिश्तेदारों की भीड़ और चाचा के मूड स्विंग्स के बीच चाची घर के कामों में जुडी हंसती रहतीं. मेरी सिगरेट की आदत का पता उन्हें ही चला सबसे पहले. एक दिन लौट के आया तो स्वेटर के बिलकुल पास आईं और कहीं, बाबू..यह अच्छी आदत नहीं है. चाचा गंभीर रहते थे पर वह हंसी मज़ाक खूब करतीं. इनवस्टी के किस्से सुनातीं. सावधान करतीं. अगल बगल के लोगों से भी रिश्ते बन गए थे. एक क्लासमेट रहती थी वहीँ तो अक्सर उससे मिलना जुलना होता, बगल के फ़्लैट में एक लड़की कामर्स में थी. मेरी सीनियर थीं पर बहुत दोस्ताना. उनके साथ एयरफोर्स लाइब्रेरी जाना आना होता था और हर शनिवार की रात देवरिया चला जाता. लेकिन पढ़ाई डिस्टर्ब तो हो ही रही थी साथ में हास्टल की आज़ादी के लिए मन में कसक थी. तो ज्यों ही हास्टल अलाट होने शुरू हुए मैं सक्रिय हो गया. इंट्रेंस में मेरिट अच्छी थी तो पहली ही लिस्ट में नाम आ गया.


पर वह गोरखपुर इनवस्टी थी और उसका भी नाथ चंद्रावत हास्टल! अलाट होना और उसमें रहने की जगह मिलना दो अलग अलग चीज़ें थीं. एन सी हास्टल की कीर्ति गोरखपुर के दिग-दिगंत में थी. एक घटना से ही यह साफ़ हो जाएगा. किरण जब पहली बार मुझसे नोट्स लेकर गयीं तो उनके एक पड़ोसी ने नोट्स देखकर पूछा, “किसका है.” उन्होंने नाम बताया तो बोले, “अरे वह तो एन सी में रहता है. तुम एन सी के लड़कों से बतियाती हो!.” बड़े शान से इसके रहवासी इसे “नॅशनल क्रिमिनल हास्टल” कहते. बताया जाता कि इमरजेंसी में पड़े छापे में बीस बोरा असलहा निकला था तो बी बी सी पर खबर आई थी. हर दूसरे कमरे के साथ एक किस्सा जुड़ा था. यहाँ फलाना सिंह को गोली मारी गयी. यहाँ फलाना सुकुल को चाकू मारा गया! तो साहब उस हास्टल में हमें जद्दोजेहद करनी थी कमरा पाने की. की गयी. कुछ सीनियर्स से रिश्ते निकाले गए. कुछ वार्डन को पापा से फोन करवाया गया. और अंततः हमें हास्टल में प्रवेश मिल गया. कमरा नंबर 50. नेहरु जी ने कहीं लिखा है कि अगर आप हास्टल में नहीं रहे तो समझिये आपकी शिक्षा अधूरी है. पर वह तो विदेशों के सर्वसुविधायुक्त हास्टलों के अनुभव से कह रहे थे. हमारे हास्टल तो ज़िन्दगी के वे सबक सिखा देते हैं जो बाहर रहकर कभी सीखे ही नहीं जा सकते. तीन मंजिलों के कोई 180 कमरों वाले इस हास्टल में पूर्वांचल के समाज का एक सैम्पल था. ज़्यादातर रहवासी ठाकुर या ब्राह्मण थे. कुछ भूमिहार, कायस्थ और अन्य मध्य या पिछड़ी जातियों के. दलितों के लिए प्रवेश लगभग वर्जित था. मुसलमान तो लगभग असंभव. अगर किसी तरह प्रवेश पा भी जाएँ तो हास्टल के भीतर जिस तरह का व्यवहार होता था, टिकना मुश्किल था. अपनी मज़बूरियों के चलते अगर वह सब झेलकर टिक भी जाएँ तो किसी भी दिन उनका ताला तोड़कर उनके रूम में कब्ज़ा हो सकता था. ठाकुरों में बांसगांव की लाबी सबसे दबंग थी. बांसगांव गोरखपुर से कोई तीन घंटे के रास्ते पर ठाकुरों का क़स्बेनुमा गाँव है. श्रीलाल शुक्ल ने शायद इसी गाँव को शिवपालपुर बनाया है अपने राग दरबारी में (शायद इसलिए कि यह स्मृति पर आधारित है अभी तुरंत कोई रिफरेन्स नहीं याद आ रहा) बांसगांव का नाम लेते ही गोरखपुर और आसपास के लोगों के मन में सत्तर के दशक में गावों की आपसी रंजिशों पर बनी फिल्मों के दृश्य उभरने लगते हैं. नालियों के विवाद में पुश्तों तक लाशें गिर जाती हैं. घर घर में वैध अवैध बंदूकें रहती हैं. बांसगांव से गोरखपुर तक किसी की हिम्मत नहीं जो चूं कर दे किसी बाबू साहेब के सामने.और यह जलवा हास्टल में क़ायम था. हास्टल में पूरी परम्परा थी बांसगांव के बाबू साहबों की. उसी आन बान से रहते थे जैसे अपने गाँव में. कमर में कट्टा खोंसे, मुंह में दोहरा दबाये. चाल ही अलग होती थी. लेकिन मैंने तो वहां भी अपवाद ढूंढ लिया. बांसगांव के जिस बाबू साहब से मेरी पहली दोस्ती हुई वह थे आलोक सिंह. दुबला पतला लगभग मिरकुचहा, खूब लम्बा, घुंघराले बाल, पतली पतली उंगलियाँ कलाकारों जैसी और कौतूहल से भरी आँखें. वह साइंस का स्टूडेंट था. इलेक्ट्रानिक्स लिया था उसने और जम के पढ़ाई करता था. सपना बरास्ता आई ए एस मंत्री-प्रधानमंत्री बनने का. गले तक अपने इंटर कालेज की सहपाठी के प्रेम में डूबा. उसे फूल कहता था. उसके खत थे...जिन्हें हास्टल के एकदम सार्वजनिक माहौल में भी सात पर्दों में रखता. खूब बोलता था मेरी तरह और बांसगांव वाले किसी से हारते तो बस उसी से. बिंदास मज़ाक उड़ाता. उसके ठहाकों से हास्टल गूँज जाता. हमारी दोस्ती का सबसे बड़ा आधार बनी देर रात तक पढने की आदत.



हास्टल में दो तरह के ग्रुप होते थे. एक रात भर पढता और सुबह तीन-चार बजे उठके पढने वालों को जगा देता, सुबह वाले क्लास के टाइम के हिसाब से रतजगा करने वालों को जगा देते. हम दोनों रतजगा करने वालों में से थे. गणित हमारा कामन सब्जेक्ट था. साथ पढ़ते. एक आशुतोष सिंह थे. वह भी आ जाते. सवाल हल किये जाते और साथ में देश-दुनिया के सवाल भी. ख़ूब बहस होती और इन्हीं बहसों के बीच हमारा नामकरण हुआ – बाबा. वैसे यह हास्टल के पंडितों का कामन संबोधन था. लेकिन मेरे साथ व्यक्तिगत सा चिपक गया. मेरा आलोक का संबोधन थोड़ा अलग था. वह मुझे गधा कहता और मैं उसे ऊंट.रतजगे वाले हम जैसे छात्रों का एक अड्डा था सुंदरी की दुकान. एन सी हास्टल गोरखपुर रोडवेज़ के एकदम समानांतर है. रात के पढने का सहारा नेपाल से लाये गए सस्ते टेपरिकार्डर होते. मुझे उन्हीं दिनों ग़ज़लों का शौक चढ़ा था. जगजीत सिंह के गाये मिर्ज़ा ग़ालिब और साथ-साथ और अर्थ के कैसेट के दिन रात बजते रहते. एक एक शेर का मानी समझने की कोशिश की जाती बीच बीच में. एक बार रात के कोई दो बजे “हमने माना की तगाफुल न करोगे” सुन के मचल गए. ई तगाफुल का होता है बे? आलोक ने मुझसे पूछा. मेरा मुंह उतरा हुआ, नहीं जानते. फिर हम अचानक उठे. बिना एक दूसरे से कुछ कहे कबीर हास्टल के उस रूम के सामने जिसमें उर्दू के एक सीनियर रहा करते थे. दरवाज़ा ख़टखटाया गया...असल में भडभडाया गया. भैया आँख मींचते निकले. हमने पूछा, ई तगाफुल माने का होला? वह बोले नज़रअंदाज़ करना. काहें? कुछ नहीं भैया सोइए..कहते हम भागे. अगले दिन पकड़ के गरियाया उन्होंने.


फिर भी रात के दो-ढाई बजे जब नींद तारी होती तो हम सब रोडवेज की तरफ निकलते. वहीँ थी हमारी सुंदरी की दुकान. सुन्दरी यानी कोई तीसेक साल का मूछों वाला गोल मटोल अपनी पतली आवाज़ में मुकेश के गाने गाने वाला उस दुकान का कारिन्दा. दुकान का मालिक़ चाहे जो हो, हास्टल वालों के लिए वह सुंदरी की दुकान थी. एक रुपये की सड़ी हुई चाय और बासी समोसों वाली उस दुकान में हम सिर्फ उसके लिए जाते थे. वह भाग भाग के चाय ले आता, हम हंसी-मज़ाक करते. सबसे पुराना और कारगर मज़ाक था उसकी शादी का. कई लोग उसकी शादी करा देने के वायदे के भरोसे महीनों उधार की चाय पीते रहे थे, वह भी डबल दूध की. महफ़िल जम जाती. सुंदरी के बेसुरे गाने, हमारा बेताल का तबला, बेस्वाद चाय, सिगरेट के धुएँ और इन सब से अपरिचित यात्रियों की कौतूहल भरी निगाहों के बीच आधे घंटे की वह मौज मस्ती सारी थकान छीन लेती. हम लौटकर आते और फिर सुबह चार बजे तक पढ़ते.


हास्टल - जहां आप जिस समय जो करना चाहते हैं, उसका साथी मिल जाएगा. पिक्चर देखना है तो बस कारीडोर में डिस्कस करना शुरू कर दीजिये, कोई न कोई साथ देने चल देगा, प्रेम चल रहा है तो प्रेम पत्रों के उस्ताद हाज़िर हैं, पढ़ना है तो साथ में पढने वाले ही नहीं पढ़ा देने वाले गुरु भी मौजूद हैं और मारपीट करनी है तो हास्टल की शान के नाम पर पचीस-पचास लोगों का जुट जाना कोई बड़ी बात नहीं. उस समय रहने के लिए इससे बेहतर कोई जगह नहीं लगती थी. टायलेट अक्सर गंदे रहते थे, सफाई वाले आते नहीं थे, वायरिंग जगह जगह से खराब थी, सीमेंट मुक्त भाव से झरती रहती, लान महीनों से साफ़ नहीं होता, पानी की टंकी खुली थी, मेस बंद थी कई सालों से, टी वी खराब थी, फोन की सुविधा नहीं थी...बाक़ी सब एकदम शानदार था! हम हीटर पर खाना बनाते. यह वैसा हीटर नहीं था जैसा आप सोच रहे हैं. बस उसकी प्लेट होती थी और नीचे हम एक ईँट रख लेते. उसी पर रोटी से लेकर चिकन तक बनता था. सबसे प्रचलित भोजन था चावल और दाल फ्राई. कभी कभी संयुक्त भोजन बनता. एक कमरे में दाल फ्राई-चावल तो दूसरे में रोटी सब्ज़ी. साथ मिलकर खाते तो यह “दिव्य भोजन” कहा जाता. शुरू शुरू में हमने मेस शुरू कराने की कोशिश की. लेकिन देखा कि बहुत लोगों ने रूचि नहीं दिखाई. तब समझ नहीं आया पर धीरे धीरे समझ आया कि हास्टल में बड़ी संख्या गाँव से आने वाले उन लोगों की थी जिनकी आय का ज़रिया खेती थी. घर का अनाज़, आलू, प्याज़ वगैरह आ जाता था. लेकिन पिता के लिए हर महीने सात-आठ सौ रूपये मेस के दे पाना संभव नहीं था. ये छात्र सुबह सुबह खाना बना लेते थे. बाहर पैसे एकदम खर्च नहीं करते. दस दस घंटे पढ़ते, सादे कपड़ों में इस तंगी से युवपन के वे साल काट देने वालों में से कुछ को जीवन में सफल होते देखना सुखद अनुभव था. लेकिन होता उल्टा भी. कई बार कुछ ही दिनों में शहर का रंग चढ़ने लगता. आलोक के बगल में एक लड़का रहता था. नाम नहीं याद अब. रंग मेरे जैसा ही काला था. कुछ दिनों में हालत यह हुई कि जैसे सिगरेट मेरे होठों से चिपकी, फेयर एंड लवली उसकी त्वचा से. दिन रात रगड़ता रहता. उस ज़माने में फेशियल कराने पहुँच जाता. नए कपड़े फैशनेबल. गागल्स. अब पैसे कहाँ से आते? तो नम्बर वाली लाटरी खेलना शुरू किया. उन दिनों यह प्रचलन में थी. लोग लाटरी खरीदते. रोज़ रात को ड्रा होता. नंबर गेस करने के लिए क्या क्या तमाशे होते. तो भाई शुरू शुरू में एकाध बार जीत गया और फिर रोज़ खरीदने लगा. परिणाम यह की क़र्ज़ में डूब गया. आलोक को बात पता चली. मुझे लेकर उसके कमरे में पहुँचा. पहले प्यार से समझाया फिर दोस्ताना गालियाँ. रो पड़ा वह. पैसों का इंतजाम किया गया और उसी लड़की की क़सम खिलाई गयी कि फेयर एंड लवली महीने में दो से अधिक नहीं ख़रीदेगा और लाटरी की दूकान की ओर मुंह करके लघुशंका भी नहीं करेगा.


यह नया जीवन था. घर के बाहर. यहाँ हम अपने अभिभावक थे. और यहाँ से इनवस्टी की राजनीति के दरवाज़े-खिड़कियाँ खुलते थे. देखते देखते छात्रसंघ चुनाव सामने आ गए थे. राजनीति से उफनते उस दौर में जाति का बजबजाता नाला हमारे सामने और नंगे रूप में सामने आना था. अगली बार उसकी ही चर्चा.  

                              ..................................जारी है



परिचय और सम्पर्क

अशोक कुमार पाण्डेय

वाम जन-आन्दोलनों से गहरा जुड़ाव
युवा कवि, आलोचक, ब्लागर और प्रकाशक
आजकल दिल्ली में रहनवारी 

7 टिप्‍पणियां:

  1. हूँ... तो हुमा खान अगली किश्त में आएंगी :)

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  2. जो कुछ स्वयं देखा है है और अनुभव किया है। उस वक़्त को लेखन में ज़िंदा करना कमाल है। हॉस्टल आज भी कुछ इसी तरह हैं।
    ग्यारवीं क़िस्त के इंतज़ार में।

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  3. जारी रखिये , पढ़कर मज़ा आ रहा है !

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  4. ...Hostel me rahte hue ye sab aaj v waisa hi hai...bas level change ho gaya hai...Aaj v Der raat tak padhne wale hain...Ilake ki ladai abhi v hoti hai...Prem wala chapter to kabhi band hi nahi kiya ja sakta...
    #Add- Amin Hostel,MM Hall, Aligarh Muslim University, Aligarh

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  5. दिल से निकली है, सो दिल में ही घुसती है सीधे

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