गुरुवार, 4 सितंबर 2014

सोनी पाण्डेय की कवितायें





आज सिताब दियारा ब्लॉग पर डा.सोनी पाण्डेय की कविता आ रही हैं | बलिया से उनका जुड़ाव 

है, इसलिए उन्हें इस ब्लॉग पर देखते हुए थोड़ा और अच्छा लग रहा है | तो लीजिये प्रस्तुत है, 

उनके संक्षिप्त आत्मकथ्य के साथ, उनकी कविता श्रृंखला - 'तीसरी बेटी का हलफनामा' |

                          




वस्तुतः मेरा उद्देश्य कभी कवि बनना नहीँ रहा, जीवन धारा जिधर ले चली, बहती रही , किन्तु 

एक टीस अन्दर ही अन्दर बचपन से बेचैन करती रही .जहाँ बेटे और बेटी के बीच घोर  

असमानता थी । मेरे हलवाहे, चरवाहे के घर की औरतेँ पुरुषोँ के बराबर अभावोँ मेँ खडी मुस्कुरा 

रही थीँ और मेरे घर के चौखट के भीतर राजा और प्रजा का अन्तराल था । जब मेरा जन्म माँ   

की तीसरी कन्या सन्तान के रुप मेँ हुआ तो बौद्धिक परिवारोँ मेँ अपनी विशेष पहचान रखने वाले 

ननिहाल मेँ चूल्हा नहीँ जला और बाबा ने पिताजी पर दूसरे विवाह का दबाव बनाना आरम्भ कर 

दिया । माँ का जीवन नारी संघर्ष का महाकाव्य है, ये कविता माँ को अर्पित करती हूँ क्योँकि 

उसने सदा भोगे हुए सत्य को लिखने के लिए प्रेरित किया

                        
                                                   ...... डा. सोनी पाण्डेय

 *तीसरी बेटी का हलफनामा*


एक ....


सुनिए बाबूजी

मैं धरती -आकाश

अन्न-जल

अग्नि-हवा को

हाजिर-नाजिर मानकर

यह स्वीकारती हूँ कि

मै आपके लिए हमेशा

अछूत अनगढ़ पहेली ही रही

और मै लडती रही हूँ आज तक

खुद से

ये बताने के लिए कि

मैं भी आपकी बेटी हूँ


दो ...



सुनिऐ बाबूजी

मैँ हर बार आपकी चुनौतियाँ

स्वीकारती रही

और करती रही अकथ श्रम

आपने सीमेंट . बालू रख लिया

अपनी अन्य संतानोँ के लिऐ

मैँने ईँट . गारे से ही

बना डाला सीढी

और पायदान दर पायदान चढती रही

आप व्यग्य से मुस्कराकर कर निकलते रहे

आपने बनाया था अन्य के लिऐ

महल

और छोड दिया मेरे लिऐ

बूढे बरगद का कोटर

मैने वहीँ उगाया

रजनीगंधा

जिसकी महक आज भी घुली है

आपके महल की आत्मा मेँ

मैँ गढती रही राजा के लोहार के बेटे की तरह धारदार तलवारेँ

और आप व्यंग्य से मुस्करा कर निकलते रहे

फिरभी लोहार पुत्र की तरह मैँने कभी नहीँ सोचा कि

उतार लूँ अपनी तेज धारदार तलवार से आपकी गरदन

काश आप देखपाते उन्हेँ

जो अपनी भोथरी छूरी से काटते रहे आपकी नाक

और मैँ जंगल दर जगल भटकती रही

खोजती रही संजीवनी

जिसकी मारकता से आज भी जिँदा है आपकी नाक

आप लाते रहे सबके लिऐ

ढेर सारे खिलौने

दिखाते रहे दिवास्वप्न

कि . उनका भाग्य आपकी मुट्ठी मेँ है

और मैँ माँ की पुरानी साडियोँ को पहन दो टूक कहती रही

मेरा भाग्य मेरे कर्म मेँ है

काश .

आप देख पाते मेरे होने का अर्थ

और सुन पाते तीसरी बेटी का दर्द ।


तीन ....


मैँ जानती हूँ

वो रात अमावस थी

अम्मा के लिए

आपके लिए प्रलय की थी

जब मैं आषाण मेँ

श्याम रंग मेँ रंगी

बादलोँ की ओट से

गिरी आपके आँगन मेँ ।


माँ धसी थी

दस हाथ नीचे धरती मेँ

बेटी को जन कर

बरसे थे धार धार

उमड घुमड आषाढ़ मेँ

सावन के मेघ

अम्मा की आँखोँ से

कहा था सबने

एक तो तीसरी बेटी

वो भी अंधकार सी

और मान लिया आपने

उस दिन से ही

मुझे घर का अंधियारा

मनाते रहे रात दिन

तीसरी बेटी का शोक।


चार ....


देखा है मैँने आपको

उगते हुऐ पूरब से

फैलते हुऐ आकाश तक

अपराजेय योद्धा की तरह

विजयी सर्वत्र

किन्तु .

यह भी कटु सत्य है

सूरज के घर मेँ भी

होता है दक्खिन का कोना

जहाँ नहीँ पहुँती सभ्यता की रोशनी

विकास का भोर होता है केवल

दरवाजे पर

सादर फाटक पर बैठता है

आज भी पुरुष का अहं

और दक्खिन के कोन मेँ

बनायी जाती है

छोटी सी खिडकी

यहीँ से निकलती है

सभ्यता के चौपाल पर

सूरज की बेटी।

यहाँ पाप है बेटी का बिहान

यहाँ महापाप है बेटी का प्रेम

यहाँ क्षय है संस्कृति का

बेटी का होना

इस लिऐ आज भी मिलता है

दक्खिन का कोना ।


पांच ....



सुनिऐ बाबूजी !

मेरे अन्दर जो दहकता हुआ

बहता है

गर्म लावा

वो मेरी उपेक्षा का दंश

और बेटियोँ की प्रतिभा का

दम घोँटू सन्नाटा है

जहाँ जलता है भभककर

सभ्यता का उत्कर्ष ।


माँ कहती थी

बेटियाँ गंगा की बाढ है

समय रहते ही बांध दो

ब्याह के बन्धन मेँ

और मैँ सोचती रही

क्या विवाह ही

औरत का जीवन है?

जहाँ नून . तेल

नाते . परते

के गुणा गणित मेँ खो बैठती है 

जीवन भुला देती है अपने सपने

और गाय की तरह खूँटे से बंधी

परम्पराओँ के नाम पर सहती है

अनमेल विवाह

अकथ पीडा

फिर भी माँ गाती थी

भिनसारे

आँगन बुहारते हुऐ

जाहिँ घर कन्या कुमारी नीँद कैसे आयी


छः ...



मेरे पास रास्ते नहीँ थे

चौखट के बाहर

परम्पराओँ के पहरे थे

बेटी और बेटा मेँ

गहरा अन्तराल था

बेटे के लिऐ सादर फाटक

मंहगे स्कूल और प्रतिष्ठान थे

बेटी के लिऐ दक्खिन का कोना और दहेज का रोना था।


क्योँ बाबूजी ?

क्या मैँ नहीँ करसकती थी

डाक्ट्रेट की पढाई ?

क्या मैँ नहीँ बन सकती थी

प्रसाशनिक अधिकारी ?

एक बार कहते मुझसे अपनी अभिलाषा

और तलाशते अपने मैँ का पैमाना

मैँ तब भी खरी थी

आज भी खरी हूँ

ध्यान से देखिए

मेरे एक एक शब्द मेँ

आपके श्रम का श्वेद

बहता है अविरल

और तीसरी बेटी करती है

रात -दिन अकथ श्रम

भरती है जतन से आपके मैँ

की तिजोरी ।

ये तीसरी बेटी है

आप मानेँगे एक दिन

आपकी बेटा न बेटी

वो लायक सन्तान है

जो पकडे रही नीव को

गाठेँ रही आँचल के कोर मेँ

आपके मर्यादाओँ की गठरी।





परिचय और सम्पर्क

डा. सोनी पाण्डेय

जन्मस्थान – मऊनाथ भंजन, उ.प्र.

पेशे से शिक्षक

साहित्यिक पत्रिका ‘गाथांतर’ का संपादन 





14 टिप्‍पणियां:

  1. परिवारों में बेटी की उपेक्षा के प्रति आक्रोश भरी ,प्रभावशाली रचनाएँ।

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  2. बढ़िया रचना
    एक जगह भोर को पुल्लिंग के तौर पर लिया गया है। यह प्रयोग किसी विशेष सन्दर्भ में हो शायद
    शुभकामनाएं

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  3. बेटी के लिए दक्खिन का कोना और दहेज़ का रोना था । सुन्दर

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  4. uttkrist rachnayen.. dyodhi e bheetar wale dakkhin kone ko ujagar karti... badhayi Sony ji

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  5. अर्चना कुमारी( बाबू शाण्डिल्य)10:55 am, सितंबर 04, 2014

    बहुत ही शानदार रचनाएँ...
    दमित भावों की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति...
    शुभकामनाएँ

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  6. पुरुष से सवाल करती तमाम स्त्रियों की कवितायें पढ़ती रही हूँ ,परन्तु जंहा विसंगातियो असमानता का मूल है हैं वंहा स्त्री इतनी कमज़ोर और अवश हो जाती है की मन मसोस कर चुप हो जाती है ,पिता से प्रश्न करती पुत्री की ये लाजवाब साहसिक कवितायें डॉ सोनी पांडे को खूब सारी शुभ कामना .इतनी सुंदर कवितायें सहेजने के लिए सिताब दियारा को बधाई

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  7. एक बेटी के दि‍ल की व्‍यथा को बहुत खूबसूरती से उकेरा है आपने...शब्‍दों में छि‍पा वो जीवन का दर्द आंखों को नम कर देता है। बधाई इतनी अच्‍छी रचना के लि‍ए।

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  8. स्त्री मन की बेचैनी की मार्मिक अभिव्यक्तियाँ !

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  9. बहुत सुन्दर कविताएँ! सशक्त अभिव्यक्ति! इस प्रकाशन पर हार्दिक बधाई!

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  10. Bahut sshakt abhivyakti...nari ka shoshan ghar ke andar se hi shru hota hai,janm se hi masoom Betiyaan ise apna bhagy man kar jiti hai aise mein pita se prashn karti aapki yah rachana har nari ke manobhavon ko swar deti hai...Badhai....vandana bajpai

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  11. मानवता की विकास-यात्रा में आदिम कबीलाई मातृप्रधान समाज-व्यवस्था के अपने से उन्नत दास-व्यवस्था में रूपान्तरित हो जाने के बाद से आज तक पुरुष-प्रधान समाज-व्यवस्था ने अपने कई रूप बदले, विकास की कई सीढियाँ चढीं, कई सफल-विफल क्रान्तियाँ सम्पन्न होती रहीं, परन्तु हर बार प्रतिगामी प्रतिपक्ष की कूट-योजना का पूर्व-निर्धारित शिकार बनती रही अकेली नारी. बाज़ार के राज ने नारी की इस गुलामी को दोहरी गुलामी में बदला है और उसकी तथाकथित आज़ादी के भ्रम के जाल को और भी बारीकी से बुना है. सबला से अबला बनाये जाने तक की नारी-यन्त्रणा की आँसुओं में डूबी व्यथा-कथा अपने-आप में मुकम्मिल कविता है. एक से बढ़ कर एक अनेकानेक कलमकारों ने बार-बार इस व्यथा को विषय बनाया और कालजयी रचनाओं से साहित्य-पटल पटता चला गया. जब तक मानवता का परस्पर दो विरोधी ध्रुवों में ध्रुवीकरण है, तब तक नारी-मुक्ति-अभियान अपने मुकाम तक नहीं पहुँच सकता. परम्परागत नारी विरोधी सांस्कृतिक मूल्यों की पट्टी धृतराष्ट्र के साथ-साथ गान्धारी की आँखों पर भी बंधी है. नारी और पुरुष दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. वे परस्पर विरोधी नहीं हैं. दोनों को एक दूसरे के विरुद्ध लामबन्द करने का कुचक्र भी शोषणकारिणी व्यवस्था के द्वारा रचा गया है. हमें समग्र व्यवस्था को ही बदलने का सपना साकार करना होगा, तभी असली समानता का समाज गढ़ा जा सकेगा और तभी जा कर नारी और पुरुष दोनों ही साथ-साथ अपने गर्वीले सिर उठा कर परस्पर सम्मान और स्नेह के साथ आज़ादी की हवा में खुल कर साँस ले सकेंगे.

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  12. आपने जिस पीड़ा का वर्णन किया है वो हर तरफ हमारे आस-पास मौजूद है पर हम या तो देखना नहीं चाहते या देखकर अनदेखा करने की आदत बना चुके हैं क्योंकि हर दूसरे आदमी की बहन इस पीड़ा से गुजरती है। बहुत खुब कहा आपने।

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