गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

'दक्खिन का भी अपना पूरब होता है' - संतोष चतुर्वेदी





युवा कवि संतोष कुमार चतुर्वेदी का दूसरा कविता संग्रह “दक्खिन का भी अपना पूरब होता है” हाल ही में साहित्य भंडार इलाहाबाद से छपकर आया है | इस संग्रह पर युवा आलोचक ‘अजय पाण्डेय’ ने एक निगाह डाली है | आईये पढ़ते है ....

            

          सहज और सुग्राह्य भाषा में सम्प्रेष्णीय कविताएं 
                                                           


दुनिया के किसी भी कोने में जब कोई कवि कविता लिख रहा होता है , तो वह उस समय मौजूदा व्यवस्था से असमति दर्ज कर रहा होता है। यानि वह एक समानान्तर वैकल्पिक दुनिया रचने की प्रक्रिया में लगा होता है। इस तरह से देखा जाए तो असहमतियां वैकल्पिक दुनिया रचने की अनिवार्य शर्तें होती हैं जो एक समय पर जाकर राजनीतिक ताकत में रूपायित हो जाती हैं | इसलिए कविता लिखना एक राजनीतिक और सामाजिक जवाबदेही है।संतोष कुमार चतुर्वेदी की कविताएं इसी जवाबदेही का परिणाम हैं;जो समाज के विभिन्न हिस्सों में छितराये हुए संधर्षरत और दमित लोगों के साथ मोर्चा संभाले मजबूती से खडी हैं।ये वे कविताएं हैं जिन्हें मात्र मनोरंजन के लिए नहीं बल्कि संबल के लिए हम अपने जीवन-युद्ध में शामिल कर सकते हैं। ये कविताए हताशा, मूल्यहीनता और उद्देश्यहीनता के इस दौर में व्यक्ति को गिरने से बचाती है, संभालती है और तैयार कर युद्ध -मोर्चे पर विदा करती हैं। आज लगातार भीड़ तो बढ़ती जा रही है किन्तु इस बढती हुई भीड़ में व्यक्ति अकेला पड़ता जा रहा है और निराशा की स्थिति में जी रहा है। लोग हारी हुई मनःस्थिति में जी रहे हैं ।दूर- दूर तक कोई उम्मीद नहीं दिखाई दे रही है अगर कुछ थोड़ा बहुत दिखाई भी कहीं दे रहा है तो कह रहे हैं लोग कि इससे क्या होने को?लेकिन संतोष चतुर्वेदी कहते हैं,छोटे-छोटे प्रयास भी महत्वपूर्ण होते हैंऔर बदलाव की पृष्ठभूमि रचते हैं।उनकी एक कविता की कुछ पंक्तियां हैं,


वे कहते हैं
अकेले चना भाड़ नहीं फोड़ता सकता
मुहावरे सच हाते हैं    
क्योंकि ये बनते हैं   
सदियों की अनुभवों की  चाशनी में पक कर ही
मैं बताता हूँ
उन्हें मुहावरे ही अन्तिम सत्य नहीं हुआ करते
साबित किया है इसे समय ने ही बार-बार
                                   (फर्क तो पड़ता है साथी) पृष्ठ-96


कविता की इन प्रारंभिक पंक्तियों के बाद कवि ने कई उदाहरण हैं, जो साबित करते हैं कि अकेले का भी अपना वजूद होता है।मायने होता है।उसे हटा देने से वह कितना बड़ा फर्क डालसकता है और उसका कहीं होना कितना बड़ा निहितार्थ हो सकता है-


कोरे कागज पर
एक बच्चे अभी-अभी खींची है एक रेखा
और कागज एक नये नवेले अर्थ में भीग गया है
अब देखिए ना
इसी रेखा से कहीं बन रहा वृत्त
इसी रेखा से कहीं संवर रहीं हैं आकृतियाँ
सी रेखा से  कहीं उभर रही हैं लिपियां
जिससे बनती है हमारे अनुभवों की वर्णमाला       
फर्क तो पड़ता ही है साथी
देखो न जाने कहाँ हुई बारिस
और तर हो गयी है
हमारे पास से गुजरने वाली हवा
खुशगवार हो गया है
अपने यहाँ का मौसम            (पृष्ठ-98)


ये पंक्तिया समाज में अकेले और हाशिये पर पड़े व्यक्ति के जीवन को एक सकारात्मक अर्थ-बोध से भर देती हैंऔर उसका जीवन अर्थ-गांभीर्य से भर उठता है।ये विश्वास बहाली की कविताए जो व्यक्ति के जीवन को अर्थ प्रदान करती हैं।
                 
स्ंतोष चतुर्वेदी समाज की अलग-थलग पड़ी चीजों को जहां  किसी की नजर नहीं जाती, उन्हें अपनी कविताओं के केन्द्र में लाते हैं ।उन पर कविताए लिखते हैं और उनके महत्व  को रेखांकित करते हैं।इस लिहाज से उनकी कई कविताए उनके हाल के प्रकाशित दूसरे कविता -संग्रह दक्खिन का भी अपना पूरब होता हैमें देखी जा सकती हैं।इस तरह की कविताओं के क्रम में इस संग्रह-संग्रह की एक कविता ड.की चर्चा कर सकते हैं।देवनागरी लिपि के वर्णमाला-क वर्ग का अंतिम वर्ण है-ड.।वर्णमाला के प्रायः सारे वर्णों से बने शब्द मिलते हैं।गाव के विद्यालयों में जब बच्चे पढ़ने के लिए जाते हैं तो उन्हें वर्णमाला की जानकारी कराने के लिए पढ़ाने का सामान्य तरीका है कि क से कबूतर, ख  से खरगोश आदि और अंत में बताया जाता है,‘ड.मायने कुछ नहीं। बच्चों को पढ़ाये जाने वाले इस एक सामान्य से वाक्य को संतोष चतुर्वेदी ने एक नया अर्थ दे दिया है। यह सामान्य सा वाक्य इस कविता के जरिए एक नया मुहावरा गढ़ लेता हैकि ड.मायने कुछ नहीं की जगह ड़ मायने बहुत कुछ।इस कविता की कुछ पंक्तिया हैं-


किसी के हिस्से में कबूतर आया
किसी ने धीरे से खरगोश हुलकाया
घड़ी टिक-टिक करती रही      
अपने होने के पहले से ले कर अब तक निरंतर
मगर क्या बात थी कि कुछ भी नहीं आया ड.के हिस्से में’’


इस कविता में कवि संवादरत होते  हुए पूछता है


अक्षरों की गहमागहमी में हमें विस्मृत कर/
रची जा सकती है क्या कोई वर्णमाला/
बनाया जा सकता है क्या कोई भविष्य/
उपेक्षित रख कर अपना समय
(ड.’,पृष्ठ-87)
                        

इसी कविता में आगे पंक्तिया आती हैं,
                            
शब्दकोश भी साध गए चुप्पी
ड. की बारी आने पर
बारहखड़ी ने भी किया इसे दरकिनार
बात करते-करते अचानक ही उठ खड़ा हुआ ड.
और चल पड़ा तेज कदमों से अपनी वर्णमाला की ओर
मैंने पूछा क्या बात है
अचानक ही जा रहे हो कहा
बातों की डोर तोड़ कर
कि जब से तुम से बातों में उलझा हुआ हूँ
तब से ही एक बच्चा
बार-बार अटक जा रहा हैपर
चाह कर भी नहीं बुला पा रहा हैउसे अपनी ओर
बच्चा नहीं बढ़ पा रहा एक भी डग आगे
पसीने-पसीने हुए जा रहे हैं अक्षरविद
लिपिवेता भी जता रहे हैं यह अनुमान
कि यहाँ होनी ही चाहिए कोई कण्ठ ध्वनि
जिससे बना रहे तारतम्य सृष्टि का                
इसलिए जाना ही होगा हमें
तुरंत इसी वक्त
अपनी वर्णमाला को सजाने-संवारने
आगे की राह बनाने
अपने मायने के रूप में
बच्चे के मुंह से
कुछ नहीं वाला मतलब सुनने        (पृष्ठ-91)


यह कविता सिर्फ वर्णमाला में ड.' का स्थान निर्धारण नहीं करती बल्कि गाव की पाठशालाओं में बच्चों को पढ़ाये जाने वाले एक सामान्य से  वाक्य ड.मायने में कुछ नहींको अर्थविस्तार देते हुए ड.मायने ड.मायने बहुत कुछबना देती है तथा इसका संदर्भ समाज में हाशिये पर पड़े उपेक्षित व महत्वहीन से जुड़ कर जनपक्षर रचना बन जाती है।संतोष चतुर्वेदी बात को कविता में रुपायित करने की खासियत रखनेवाले कवि हैं और रामान्य बात भी इनके यहाॅं कविता का शक्ल लेकर एक बड़ा अर्थबोध लिए प्रस्तुत होती है।पूरे समाज के एक सवालिया निशान बनकर खड़ी होती है।चर्चा के इस क्रम में हम बात कर सकते हैं इस संग्रह की एक कविता माॅं का धर।यहकविता लिखी तो गई है मा पर परन्तु एक व्यापक फलक पर स्त्री-सवाल को खड़ा करती है कि कोई ऐसा घर भी है जिसे वह अपना कह सके ?कहा है वह-ससुराल या मायके में? ससुराल में तो उसका घर रहने रहा  अगर संयोग से कोई स्त्री अपने मायके भी रह जाए तो वहा का घर  भी उसकंा नहीं होता।उस घर की पहचान भी वहा पुरुष सदस्यों से होती है और वहा भी स्त्रिया विस्थापित ही रहती हैं।समाज में वे न जाने कहा-कहा किस-किस  रूप् में खटती-खपती रहती हैं।इसके बावजूद भी किसी घर की पहचान में वे शामिल नहीं होतीं। इसके लिए संतोष चतुर्वेदी एक कविता कुछ पंक्तियाँ देख सकते हैं-


न जाने कहा सुना मैंने एक लोकगीत
जिसमें माँ बदल जाती है
कभी नदी की धारा में कभी पेड़ की छाया में
कभी बारिस की बूंदों से
कभी घर की नींव में होते हुए
माँ बदल जाती है फिर माली में
बड़े जतन से परवरिश करती हुई अपने पैाधों की
फिर बन जाती है वह मिट्टी
जिसमें बेखौफ उगते अठखेलिया करते
दिख जाती है पत्तियों में
डालियों में फूलों में    
फिर धीमे से पहुँच जाती हमारे सपनों में
धान रोपती बनिहारिने गा रही हैं
कि जिस तरह अपने बियराड़ से बिलग हो कर
धान का बेहन दूसरी  धूल -मिट्टी में गड़ कर
लहलहाने लगता है फूलने-फलने लगता है
उसी तरह गुलजार कर देती हैं अपनी विस्थापित उपस्थिति से
किसी भी घर को महिलाए
खुद को मिटा कर                    
और जहा तक माँ के घर की बात है
मैं हरेक से पूछता फिर रहा हॅूं
अब  भी अपना यह सवाल               (पृष्ठ19-20)


दरअसल जहा तक माँ के घर की बात हैयह वह सवाल है जो पूरी स्त्रीजाति का सवाल है और इसका सिर्फ एक ही उत्तर है माँ पर भी रहती है वह/वहीं बस जाता है उसका घर/वहीं बन जाती है उसकी दुनियापृष्ठ-20। इस तरह माँ पर लिखी गई यह कविता एक बड़े संदर्भ से जुड़ कर संपूर्ण स्त्रीजाति की अस्मिता को संदर्भित करती है और स्त्री विमर्श की जमीन तैयार करती है।
                

विगत सदी में नब्बे के दशक के बाद पूरी दुनिया में पॅंजीवाद के लिए अनुकूल माहौल तैयार हुआ।भारत भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। पॅंजीवाद ने भारतीय राजनीति को भ्रष्ट बनाया और साहित्य को भी गहरे प्रभावित किया ।साहित्य के प्रति़़बद्ध राजनीनिक मिजाज में विचलन सा आया।राजनीति साहित्य का मुख्य स्व्र न हो कर कविताओं में आइटम सांग्ससी हो गई।आज गिनती के ही युवा रचना बच्चे हैं जिनके काव्य-कर्म की अन्तर्वस्तु राजनीति हो।इस दृष्टि से संतोष चतुर्वेदी प्रतिबद्ध राजनीतिक रचनाकार हैं।राजनीति उनकी कविताओं की अन्तर्वस्तु एवं अंतरस्वर है।अपनी रचनाओं में वे देश के मौजूदा हालात और राजनीति की दशा-दिशा पर बात करते नजन आते हैं।वे राजनीतिक चेतना संपन्न राजनीतिक संभावना की तलाश के कवि हैं। इसलिए उनकी कविताओं में मौजूदा राजनीनिक व्यवस्था के समानांतर एक वैकल्पिक का आह्वान होता है। यह प्रवृत्ति उनकी अधिसंख्य कविताओं में देखी जा सकती है।राजनीनित उनकी रचनाओं का एक प्रबल पक्ष है।उनकी कविताओं में इस समय का एक सजग राजनीतिक कवि बोलता है इसके किसी कविता की पंक्तियों का उल्लेख आवश्यक नहीं बल्कि  उनकी कोई भी कविता देखी जा सकती है।संतोष चतुर्वेदी राजनीेतिक कवि होते हुए भी उनकी कविताओं में एक खास तरह की रूमानी क्रान्तिकारिता का आक्रोश न होकर एक सुचिंतित प्रौढ़ राजनीतिक की उपस्थिति मिलती है।
             

संतोष चतुर्वेदी के इस कविता -संग्रह दक्खिन का भी अपना पूरब होता हैकी कविताएँ एक खास की जनपदीयता लिए हुए लोकधर्मी हैं।पूर्वी उत्तर प्रदेश का भोजपुरी का जनपद काफी मुखर रहता है।वास्तव में यह कवि रहता भले ही है इलाहाबाद में, लेकिन अपने गाव से कच्ची मिट्टी ले कर गया है और कविताए रा मैटिरियलसे नहीं बल्कि कच्ची मिट्टी से गढ़ता है।इस कविता-संग्रह की कविताए एक अलग मिजाज की कविताए हैं।संतोष चतुर्वेदी अपनी कविताओं का विषय -वस्तु सामान्य जनजीवन से उठातें हैं और उनकी कविताए उनसे प्रतिष्ठित होती हैं।इन कविताओं में अपने समय का कोलाज उपस्थित मिलता है और ये कविताएँ हमारे समय व समाज की छायाप्रति सी जान पड़ती हैं।इसकी बानगी हम मोछू नेटुआ’,‘पेन ड्र्ाइव’,‘राग नींद’,‘हाशियाऔर वे अकेला कर देना चाहते हैंआदि उनकी कविताओं में देख सकते है।
            

इस संग्रह की कवितायों केा पढ़ने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि कवि को अपने समय की भयावहता पूरा ज्ञान है।वह हमारे संकट को पहचानता भी हैऔर उनसे लोगों को खबरदार भी करता है।इस निराशापूर्ण स्थिति में भी इस संग्रह की कविताएॅं निराश नहीं करतीं,यह विश्वास दिलातीं हैं कि दुनिया में जबतक


प्रश्नवाचक चिन्हरहेंगे तबतक संभावनाए भी रहेंगी
क्योंकि जवाब की जद्दोजहद में
जीवन को तलाशते
न जाने कब से अनवरत
प्रतीक्षा में खड़े
बेचैन सी आत्मा वाले
ये प्रश्नवाचक चिन्ह
कभी नहीं बैठ पाते
पालथी मार करप्रश्नवाचक चिन्ह,              (पृष्ठ-122)
                                

इधर हाल के वर्षों में काफी कुछ बदला है।वैश्विकरण और बाजारवाद के इस दौर में जहा सारी चीजेंा की कीमतें लग चुकी हैं और लोग अपने तक को बेचने के लिए खड़े हैं।ऐसे में यह कहना किकुछ लोगों ने भी नहीं अभी तक/अपनी कोई कीमत कीमतों की दौड़ से बाहर, पृष्ठ-118 ये पंक्तिया एक बड़ी संभावना बहाल करती हैं और जगाती हैं। किन्तु जहा तक कविता की विषय-वस्तु का सवाल है लो इस लिहाज से संतोष चतुर्वेदी काफी सावधानी बरतते हैं। विषयों का चयन प्रायः मौलिक होता है।इस संग्रह में तो कुछ विषय ऐसे हैं जिन पर कविताए पहली बार यहीं देखने को मिल रहीं हैं जैसे,सांप पकड़ने वाले पर कविता मोछू नेटुआ’,‘दशमलव’, ‘ओलार’,पानी के रंग पर लिखी गई कविता पानी का रंग’, ‘पेनड्र्ाइव समय’ ,‘विषम संख्याएं’, ‘हाशिया’, ‘ड.’, गाँव के गप्पियों परलिखी गई कविता गप्प की तरकीब से ही,’ चारपाई बुनने वालों कविता खाट बुनने वाले’, लालटेन के भभकने पर कविता भभकना’, और पूर्वी उत्तर प्रदेश के गावों की दक्षिण तरफ अधितर बसायी गईं बस्तियों को केन्द्र में रखकर लिखी कविता ,जिसके शीर्षक पर ही इस संग्रह का नामकरएा किया गया है, ‘दक्खिन का भी अपना पूरब होता है।ये कुछ उदाहरण हैं जिन विषयों पर कविताए पहली बार यहीं देखने  को मिल रही हैं। इस संग्रह में कुछ छोटी कविताए भी जो भाषा ,शिल्प और कथ्य की दृष्टि से काफी असदार साबित होती हैं-

अक्सर यही होता है
कि टहनी पर जहा दिखती हैं खुरदुरी गाठें
वहीं से फूटती हैं नयी राहें
जहाँ बिल्कुल सीधी सुरहुर दिखती हैं
किसी बांस बल्लरी की टहनी
वहां से उम्मीद का कोई कल्ला
नहीं फूटता कभी                 (वहीं से फूटती हैं राहें,पृष्ठ-123 )


इसी शिल्प में रची गई एक छोटी सी कविता की पंक्तियाँ हैं,‘


अतल गहराइयों में राह बना लेने वाला
समुन्द्र के सीने को चीर देने वाला
पानी को बेरहमी से हलकोर देने वाला
भीमकाय जहाज
डरता आया है हमेशा से
महीन से सुराख से                  (सुराख,पृष्ठ-116 )


इस तरह से ये छोटी कविताए भी मन-मस्तिष्क पर प्रभावकारी अचूक कविताए हैं।कवि ने इस संग्रह की कतिाओं में मनुष्य -स्मृति से प्रायः बाहर हो चले भेजपुरी के शब्दों जैसे,खपड़ा,नरिया, धरनि ,बियराड़,नधा,फिरकी,जइसा,सुरहुर,ओलार आदि का प्रयोग अपनी कविताओं करके उन्हें संरक्षित किया है। अगर कुछ खामियों की बात  करें तो असावधानीवश छपाई में कुछ गिन्नी-चुन्नी वर्तनी संबंधी गलतिया रह गईं हैं हालाकि कविताओं पठनीयता की  पर इसका असर नहीं पड़ता है।अंततः ये कविताए इस बात का प्रमाण हैं कि वाग्विलास और पांडित्य अलग सहज व सुग्राह्य भाषा में भी असरकारी संप्रेष्णीय कविताए लिखी जा सकती हैं। 
           


समीक्षित संग्रह

“दक्खिन का भी अपना पूरब होता है”

कविता-संग्रह
संतोष कुमार चतुर्वेदी,
साहित्य भंडार ,50,चाहचंद,
इलाहाबाद-221003    
                              


समीक्षक
                                               
अजय कुमार पाण्डेय   
                                               
ग्राम+पोस्ट- देवकली
                                               
होकर से- नवानगर
                                              
जनपद-बलिया, पिन-221717, उ. प्र.
                                             

मो.न.-07398159483   

















                           

5 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन समीक्षा पढने को मजबूर करती है ।

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  2. रामजी भईया आपने बेहतरीन कार्य करवाया है....संतोष भईया, अजय भईया के साथ साथ आपको भी बहुत बहुत शुभकामनायें... पढ़ के मन प्रफुल्लित हो गया मैं तो तुरंत इस पुस्तक को पढ़ने जा रहा हूँ...बेहतरीन काम है दिल्ली भी देखे इसे साहित्य अब दिल्ली मोह छोड़ रहा है....और इसका श्रेय आप जैसे भागीरथ प्रयास को जायेगा अब यहाँ से कही बात दिल्ली भी सुनने को आतुर है.....

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  3. Bahut Shaandaat Sameeksha! Ajay jee, Ramjee bhai aur Santosh jee aapko badhai aur haardik Aabhaar!

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