बुधवार, 18 जुलाई 2012

भरत प्रसाद की कहानी - गुलाबी गैंग


भरत प्रसाद 

 युवा हिंदी आलोचना में भरत प्रसाद का नाम जाना-पहचाना है , और इसके लिए वे पुरस्कृत भी  हो चुके हैं | हालाकि उन्होंने अपनी रचनात्मकता के दायरे को आलोचना के साथ-साथ हिंदी की अन्य विधाओं - 'यथा कविता और कहानी' - में भी विस्तारित किया है , लेकिन अभी इन विधाओं में उनका वास्तविक मूल्यांकन होना शेष है | उम्मीद की जानी चाहिए कि युवा स्वरों के  रचनात्मक विविधता वाले दौर में भरत प्रसाद की विविधताओं का भी युक्तिसंगत मूल्यांकन होगा |  

कविताओं के माध्यम से पहले भी आप उनकी विविधताओं को 'सिताब दियारा' ब्लाग पर परख चुके हैं, और आज उसी कड़ी को विस्तारित करते हुए उनकी एक कहानी 'गुलाबी गैंग' यहाँ प्रस्तुत की जा रही है | इस कहानी में भरत प्रसाद उस साहस को रचने की कोशिश कर रहे हैं , जो भले ही आज सामान्यतया अनुपस्थित दिखाई दे रहा हो , लेकिन जिसके भविष्य में फलीभूत हो सकने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता | 

              तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर भरत प्रसाद की कहानी
                                 'गुलाबी गैंग'
                     
                    गुलाबी गैंग

मैं अकेली हूँ, पोषक भी हूँ और आक्रामक भी, रचयिता हूँ तो विनाशक भी। मैं शोषित नहीं हूँ- सन्त नहीं हूँ - जो दोस्तों के लिए स्नेहमयी और शत्रुओं के लिए खतरनाक।
नाओमीवुल्फ (फायर विद फायर)
           
मार तो फिर मार ही होती है। वह चाहे तलवारी आँखों की हो, नफरत भरी चुप्पी की हो, जहरीली जुबान की हो, तिरछी मुस्कान की हो या फिर किसी और शातिर अदा की! हर मार का अलग‘-अलग स्वाद, अलग-अलग आनन्द और दर्द होता है। लात की मार को बात की मार से कैसे एक कर सकते हैं ? गाल पर छपे हुए थप्पड़ का स्वाद क्या वैसा ही होगा, जैसा किसी की आँखों से फूटते धिक्कार का होता है ? ‘फर्कशब्द जिन्दा ही इसीलिए है कि हर फर्क में फर्क होता है! पास-पास के फर्क को भी एक नहीं कर सकते, उसे मिटा नहीं सकते। इसीलिए तय मानिए कि हर मार का अपना-अपना असर है, अपना-अपना मकसद है। मार सामने से भी होती है और पीछे से भी। प्यार से भी की जाती है और प्यार न होने के कारण भी। उसे साक्षात् देख सकते हैं, सुन सकते हैं, महसूस कर सकते हैं। सौ की सीधी बात यही कि मार की सत्ता असीम है। असंख्य हैं उसके रूप। वह कहाँ, कब, कैसे, किसको अपने आगोश में ले ले, कह पाना मुश्किल है। अब इस मार को किस खाते में डालेंगे, जो किसी की विषबुझी जुबान से मिलती है, और तिल-तिल तड़पाने के बावजूद मृत्युपर्यन्त पीछा नहीं छोड़ती । इसमें न हाथ-पैर टूटा, न आँख फूटी, न अंग-भंग हुआ, न ही खून बहा। मगर................... असर कुछ इस कदर गहरा और बेअंदाज कि इंसान टूट-फूट जाता है अंदर से। संज्ञाशून्य हो जाता है मारे चोट के। वह खून के ऐसे आँसू रोता है, जो भीतर-भीतर ही आत्मा में टपकता रहता है।
            उत्तर प्रदेश का अंचल - बुंदेलखण्ड। किसने नहीं सुनी है - रानी झाँसी की वीरगाथा ? किसकी हिम्मत है जो बुंदेलखण्ड के अमर गौरव को इंकार कर सके। मगर नहीं, इतिहास ने जैसे ही करवट बदली, जैसे ही देश को जकड़ी हुई गुलामी की बेड़ियाँ झनझना कर टूटीं, खण्ड-खण्ड हुईं, देश स्वतंत्र हो गया। आजाद होने का जो सिलसिला सन् 47 में शुरू हुआ था, वह आज भी बढ़-बढ़कर, उछल-मचलकर बेतरह जारी है। देश दिन-प्रतिदिन आजाद हो रहा है। अपने अतीत से, वर्तमान से, भविष्य से, दायित्व से, पहचान से, मान से, सम्मान से, अन्दर से, बाहर से, सम्पन्नता और विपन्नता से............. न जाने किस-किस से। हमारा देश वाकई आजाद हो रहा है। तो बुंदेलखण्ड .................. प्रकृति यहाँ आकर खुद भी उन्मुक्त हो गयी है, अपने व्यापक दायित्व से। उसने बुंदेलखण्ड को छुट्टा छोड़ रखा है - जलने-बुझने के लिए, आबाद-बर्बाद होने के लिए। यहाँ धरती मइया न बांझ है - न अन्नदार, न रसमय है न पत्थर-दिल, न हरी चूनर वाली है न विधवा जैसी। यह बुंदेलखण्ड............... निचला, पठारी, बंजर, चट्टानी और बादलों की कृपा का भूखा अंचल। किसान उठते हैं - झोपड़ी से, लपक चलते हैं - खेतों की ओर। माथे पर हथेली देकर दूर क्षितिज में निहारते हैं घण्टों तक। कहीं बादल तो नहीं उठ रहे हैं ? ऐसा कहाँ अहोभाग्य ? कि इन्द्र देवता के दर्शन हों। बुंदेलखण्ड की धरती अभिशप्त है अकाल मौत मरती बेटीनुमा फसलों को अपनी सूनी-सूखी गोद में दफना देने के लिए।
            सिर्फ इंसान ही इंसान से नहीं, प्रकृति भी अपनी हार का बदला लेती है। सूद-ब्याज सहित, एक सौ एक प्रतिशत, बिना माँफ किए। लूटो उसे, लूट लेगी तुम्हें। मारो उसे, खत्म कर देगी। मजाक बनाओ उसका, वह तुम्हारे अस्तित्व को ही मजाक बना देगी। इंसान हो या प्रकृति,बर्दाश्त की एक सीमा तक ही सीधे-सज्जन रह पाते हैं। इतिहास के पन्नों पर गौरव के साथ उपस्थित यह बुंदेलखण्ड अपनी मौजूदा नियति पर ऐसा रोता है कि आँसू नहीं निकलते। जिले के मालिक, तहसील के प्रधान, थाना के यमराज, सुपरिंटेण्डेंट आफ पुलिस, ब्लाक-प्रमुख कौन बचा है - बुंदेलखण्ड को नोंचने-खसोटने से। तीन साल की नियुक्ति में तीस साल तक मस्त जीने का जुगाड़। आफिस में कुर्सी पर बैठते ही खुजली शुरू हो जाती है। गरीब-गुरबा, अनपढ़, अजनबी, दबा-सताया, कोई भी कैसा भी, कहीं का भी मुवक्किल हाथ लग जाय, पाई-पाई चूस डालते हैं ये। यह सुविधा-शुल्क ही है जो इन्हें कल सुबह भी उठने की ख्वाइश जगाता है, नौकरी करने की लालसा पैदा करता है, ड्यूटी करने को उकसाता है। पके सेब की तरह मुखमंडल को स्वस्थ रखने का टानिक है यह सुविधा-शुल्क। कहिए तो आफीसर आपके लिए क्या न कर डाले ? नियम-कायदे-कानून उसके लिए फुटबाल से ज्यादे मतलब नहीं रखते। उसके साथ वह अक्सर पैरों से पेश आता है। न जाने कब से लूटने का यह मैच चल रहा है। हार गयी है बुंदेलखण्ड की धरती - इन सरकारी लुटेरों से। सुन सकते हों तो सुनिए कान लगाकर - सैकड़ों दिशाओ से उसके अहकने की आवाजें सुनाई दे रही हैं।
            गैंग अर्थात् गुट्ट, गिरोह, लश्कर। इसे टोली, समूह, समुदाय या टीम पुकारने की कोई जुर्रत न करे। यह ठेठ भाषा में, खुलेआम, ताली ठोंककर गैंग है - गुलाबी गैंग। चोर, डकैत, गिरहकट्ट, अवारा, कसाई या सुपारी लेने वालों का नहीं, आदमियों का भी नहीं। बुंदेलखण्ड की बंजर धरती में पैदा होने वाली बेनाम औरतों का गैंग, जिसमें एक नहीं, दस नहीं, चालीस भी नहीं। कुल सौ के आसपास गिनती बैठेगी गुलाबी गैंगमें सक्रिय इन सिपाहिनियों की। समूचे बुंदेलखण्ड में गुलाबी गैंगका मतलब चलता-फिरता भूचाल, साक्षात् नाचता बवण्डर, रूह कहाँ देनी वाली बिजली। गुलाबी गैंगनाम सुनते ही मजलूम, असहाय, लावारिश चेहरों पर खुशी थिरक उठती  है और  सरकारी बाबुओं से  लेकर आला अधिकारियों की बुस्शर्ट के नीचे मुलायम बोटी थर-थर काँपने लगती है। भूमिहीन, बेरोजगार, अल्पशिक्षित, गरीब निचले तबकों की औरतें ही लक्ष्मीबाई हैं गुलाबी - गैंग में ; जिन्हें वर्षों तक थाना, कचहरी, अदालत, आफिस के बन्द कमरे में लूटा गया है। जिनके चोट खाए हाथ-पैर और चेहरे के सूखे घाव सरकारी जुलुम की खुलेआम गवाही देते हैं। शरीर, सम्पत्ति, जमीन क्या कुछ नहीं लूटा गया है इनका ? मरता क्या न करता ? अपने नेस्तनाबूद अस्तित्व को बचाने के लिए ये निकल पड़ी हैं चौखट से। इनकी साड़ी का पल्लू सर ढँकने के नहीं, कमर कसने के काम आता है। पैरेां में चट्ट-चट्ट बजती हवाई चप्पल, हाथों में अपने कद के बराबर ठिगनी लाठी - तेल खा-खाकर चमकती हुई। दूर से सुनाई देती इनके चप्पलों की आहट बड़े-बड़े अफसरों के सिर पर बजते हुए घन के माॅफिक लगती है।
            आज बुंदेलखण्ड के एक थाने के दरोगा आजाद चौहानका नम्बर है। चढ़ गया है वह गुलाबी गैंग के हत्थे। थाने में न्याय की फरियाद करने आयी गाँव की मुन्नी देवी पर नियत गन्दी कर ली। एफ. आई. आर. लिखवाने के बहाने बुलाया एकांत कमरे में। कल-बल-छल से लगा पटाने मुन्नी को। मुन्नी भाँप गयी लार चुआते भेड़िए का असली चेहरा। बात से बात न बनती देख दरोगा बत्तमीजी पर उतर आया और मुन्नी की शरीर पर लगा हाथ फेरने............. मुन्नी घण्टे भर बाद थाने के बाहर निकली। रोती, सुबकती, तन ढँकती। इसीलिए पिछले तीन सालों से आजाद चैहान गुलाबी गैंगकी आँखों की किर-किरी बना हुआ था। मवालियों, लफंगों, गुण्डों से सांठ-गांठ के लिए बदनाम, देहाती फरियादियों से पैसा चूसने में उस्ताद, डण्डे के जोर से औरतों की इज्जत-आबरू बर्बाद करने में सिद्धहस्त आजाद चैहान आज आ गया गुलाबी गैंग के निशाने पर। ठीक सुबह का वक्त, दारोगा शर्ट-लुंगी सैंडिल पहनकर निकला था रोड पर पान खाने। अचानक गुलाबी गैंग की आँधी देखकर वापस दौड़ पड़ा थाने। शराब पी-पीकर फूली हुई थुल-थुल शरीर और भीतर चुपचाप जमे हुए अंधे अपराध-बोध ने उसे निहायत कमजोर बना दिया था। पचास कदम मुश्किल से वापस दौड़ा होगा कि लाठी लेकर टूट ही तो पड़ा गुलाबी गैंग-। दे दनादन। पीठ, कमर, हाथ-पैर, जंघा नितम्ब............ दारोगा के सारे अंगों ने आज जमकर लाठियों का स्वाद चखा। पन्द्रह मिनट में तेल खाई लाठियों के प्रहार और सिर पर ओला बनकर टूटती चप्पलों की झड़ी ने अन्ततः हाथ जोड़कर प्राण की भीख मांगने पर मजबूर कर दिया आजाद चौहान को। गुलाबी गैंग ने बख्श दो जान,फटी बण्डी और तार-तार हो चुके पट्टीदार जंघिया के साथ जमीन पर छितराए दरोगा को मुक्त कर दिया तेलिया लाठियों के आतंक से। गुलाबी गैंग ने चलते-चलते बिना किसी खौफ, जल्दबाजी या हड़बड़ी के, मार में टूटी हुई चप्पलों की माला पहनाई, आगे सुधर जाने की नसीहत दी और पलक झपकते दृश्य से ओझल हो गईं।
             
जीवन में पहली बार, हाँ, हाँ, पहली बार दारोगा साहेब की ऐसी बेजोड़ खातिरदारी हुई। लगभग बेहोशी छा उठी बदन में। जमीन पर हाथ देकर उठने की कोशिश की तो गश आ गया। धम्म से बैठ गये जमीन पर। दुर्घटना की खबर लगते ही चार-पाँच सिपाही लपक आये इधर। थाना इंचार्ज साहेब पहचान में नहीं आ रहे थे। घुँघराले बाल ऐसे बिखरे थे, जैसे उजड़े चमन की झाड़ियाँ। लाठियों का प्रसाद खाकर थुल-थुल शरीर और फूल उठी। मार खाते वक्त ससुरी सैंडिल ने भी साथ छोड़ दिया, सड़क के एक किनारे दुबकी पड़ी थीं। सिपाहियों ने लपककर संभाला मालिक को, गले में लटकते स्वर्णहार को निकाल कर फेंका नाली में, और दोनों ओर से कंधा देकर ले चले थाने की ओर। न जाने कब से उमड़ते-घुमड़ते-नाचते क्रोध को सीने में जज्ब किए बैठे थे - दरोगा साहेब - साले, सब सुबह-सुबह कहाँ मर गये ? देखते हैं कि यहाँ अकेले पिटा पड़ा हूँ और आकर मुझे बचाते तक नहीं। पड़े रहो साले बिस्तर पर। आ जाने दो चैकी देखता हूँ एक-एक को।पैरों पर लगी चोट की कसक इसी दबे क्रोध में घुल-मिलकर बोल रही थी। कंधे देने वाले सिपाहियेां को दी एक-बीस गालियाँ और अगिया बैताली मुद्रा में पूछा - कमीनों, तुम सब कहाँ थे ? इन रण्डियों ने मार-मारकर कचूमर निकाल लिया और तुम लोग बिस्तर तोड़ रहे थे ,’ अपनी शरीर की वैशाखी देकर ले चलते घायल दरोगा से वे इस वक्त क्या बोलें ? हाँ, यह जरूर हुआ कि सिपाहियों के चेहरे पर न जाने क्यों दबी-दबी सी प्रसन्नता खिल रही थी। अब इसमें क्या शक-सुबहा कि थाना-पुलिस हाथ-मुँह धोकर गुलाबी गैंग के पीछे पड़ेगा। चोट खाए चूहों की माफिक छान मारेगा पूरा इलाका। थाने में गुमनाम, अदृश्य और सूचनाबाज भेदियों को बुला-बुलाकर एक लिस्ट तैयार की जाएगी कि किस गाँव की कौन सी औरत इस गैंग में शामिल है, दर्ज करो उसका नाम, पता, ठिकाना। आजाद चौहान की मार्मिक खातिरदारी के बाद ऐन पन्द्रह दिन के भीतर गाँव-गाँव से पकड़ा गया तकरीबन एक दर्जन औरतों को जबरन लाया गया थाने, और डराने, धमकाने, लालच देने वाली शैली में शुरू हुई पूछताछ -
क्या नाम है तेरा ?’
गुलाबी गैंग’ - एक बंदी औरत।
क्या ? यह कौन सा नाम है रे ?’
मेरा नाम, पता, ठिकाना सब कुछ यही है।
बेवकूफ बनाने चली है हमको। जो पूछ रहा हूँ, इज्जत से बता दे
वरना...............।
गुलाबी गैंग............।एक साथ सभी औरतें।
            बार-बार एक ही वाक्य सुन-सुनकर झल्ला उठा डिप्टी दरोगा मार्तण्ड कुमार। पैर पटकते हुए बुलाया दो सिपाहियों को और आदेशात्मक तेवर में बोला - लगाओ वाट इन देवियों को ; चखाओ मजा कानून तोड़ने का। जरा पता तो चले - थाना से बैर मोल लेने का क्या इनाम होता है ?’
            आगे बढ़ आए दो सिपाही। काँख में रूल दबाए त्रिभंगी मुद्रा में खड़े हो गए। चुनौटी से सुर्ती निकाली, बायीं  हथेली पर रखा, चूना मिलाया और लगे मसलने - क्या साब ! आप भी...........  इतना क्यों मूड खराब करते हैं अपना ? लीजिए थोड़ा, (सुर्ती आगे बढ़ाते हुए)। आपको तो नहीं मारा-पीटा न ! आप अभी नये-नये आए हैं ? हम सब यहाँ छः साल से सड़ रहे हैं। भीतर-बाहर की सारी असलियत पता है हमें। माना कि पद में आप एक ओहदा ऊपर हैं, मगर उम्र में आप से दस साल बड़े हैं हम। आप पढ़े-लिखे, खानदानी और इज्जतदार अफसर हैं। आजाद साब के पचड़े में न मत उलझिए। जब ऊ दुबारा चार्ज में आएंगे, तो इनका जो करेंगे, सो करेंगे।
तो क्या इनको ऐसे ही जाने दूँ ?’ डिप्टी दरोगा नरम पड़कर बोला।
थाने में क्या करेंगे इनका ? अँचार तो नहीं डालेंगे न !
देर में ही सही डिप्टी दरोगा को समझ में आ गया कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं। नियम तोड़ने वाला भी दिशा देता है कि नियम को किधर जाना चाहिए। वह कानून का व्याकरण दुरूस्त करता है और कई बार नियम को तोड़कर ही सही काम को अंजाम दिया जा सकता है। मार्तण्ड कुमार ने आगे एहतियात के तौर पर लिख लिया एफ. आइ. आर. और आइंदा ऐसी वारदात न करने की सख्त-सूखी-खोखली चेतावनी देकर मुक्त कर दिया सभी औरतों को, जो गुलाबी गैंगके सिवाय कुछ सोचना ही नहीं सीखी थीं।
समय केवल हवा की तरह अदृश्य रहकर निरंतर बहता हुआ अस्तित्व ही नहीं है। वह डेस्टर है, जो पुरानी चीजें मिटाता है। पर्दा है, जो ढँक देता है झूठ और सच। नींद की घुट्टी है वह, जिसे पीकर हम चैन से सो जाते हैं। समय जितना कमजोर और समय जितना बलवान किसे माना जाय ? समय सब कुछ दे सकता है और सब कुछ छीन सकता है। वह बीत कर भी बीता नहीं हैं। समय कभी खत्म हो ही नहीं सकता। समय की मृत्यु असम्भव है। मानव जीवन में एक बार अपनी उपस्थिति दर्ज करा लेने के बाद समय अमर हो उठता है। समूची सृष्टि अभिशप्त है मरने के लिए - समय के सिवा। घटनाएँ-दर-घटनाएँ, उत्थान और पतन, दोस्ती और दुश्मनी, विनाश और विकास, लगाव और दुराव, सन्धि और बगावत परिभाषा रचते हैं समय की। लंगोटिया यार जानी दुश्मन बन जाता है - समय का फेर। लाखों की नजरों में चढ़ जाने वाला - एक दिन लाखेां निगाहों में गिर जाता है - समय का फेर।
थाने के दरोगा को सूद-ब्याद सहित मिल गया अपनी करनी का फल। गुलाबी गैंगकी दुस्साहसी औरतें गिरफ्तार हुईं और छूटीं। महीने-दो-महीने यह घटना बुंदेलखण्ड का माहौल गरमाए रही। आखिर कब तक ज्वार चढ़ा रहता ? छः-सात महीने बाद वातावरण सतह पर कुछ इस तरह शान्त और स्वाभाविक दिखने लगा जैसे कुछ हुआ ही न हो। गुलाबी गैंग शान्त, तो समझिए दुनिया शान्त। बीत गए पूरे नौ महीने। बुंदेलखण्ड का थाना कचहरी, ब्लाक, जिला सौ सालों से निरन्तर जिस ठसाठस्स कीचड़ में तैरता, डूबता आ रहा था, दृश्य पुनः वहीं का वहीं। कहाँ है गुलाबी गैंग ? अपने नाम मात्र से भ्रष्ट अधिकारियों की बोटी-बोटी कँपा देने वाली योद्धा महिलाएँ कहाँ छिप गयीं ? कहीं यह तूफान के पहले की असाधारण शान्ति तो नहीं ? शायद !
सदर तहसील - बुंदेलखण्ड। रोज की तरह घना होता जन सैलाब। तहसील 10 बजे खुल जाती है, मगर तहसीलदार, कुर्सी पर विराजमान होते हैं - तकरीबन 12 बजे, वो भी सप्ताह में ज्यादा से ज्यादा दो-तीन बार। कई बार तो श्वेत पर्दे से ढँकी एंबेसडर में आते हैं- भूरा चश्मा चढ़ाए सधे कदमों से हाजिर होते हैं, और कड़क लाभ का अंदाजा लगाकर रफू-चक्कर हो लेते हैं। जानना चाहेंगे नाम ? अवध बिहारी नाम है। यहाँ बिहारी का मतलब- बिहार का करने वाला नहीं ; विहार का मतलब जैसे - नौका विहार-मौका विहार, जल विहार-मल विहार, वन विहार-धन विहार इत्यादि। थोड़ा और विस्तार से तहसीलदार साहब का बायोडाटा जान लीजिए। इन्होंने तीर्थराज प्रयाग अर्थात् इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी. ए., एम. ए. करके उस विश्वविद्यालय को अपना ऋणी बनाया है। पी-एच. डी. दर्शनशास्त्र से किया है। दर्शन के दुर्लभ, कठिन तत्वों को घोंट-पीसकर किस कदर अपनी आत्मा में पचाया है - यह उनके चंडुल माथे पर खिलती हुई चमक से तत्काल ही लगाया जा सकता है। महोदय कम बोलते हैं,कम हँसते हैं, कम दिखते हैं, कम उलझते हैं, कम भोजन करते है। गोरी, चिकनी, रोएँदार सागौन के पेड़ की तरह सीधी तनी काया सिर्फ चावल-दाल भकोसकर थोड़े ही खड़ी है। पक्के फलाहारी देवता हैं।
तहसील के गेट के अन्दर जैसे ही अम्बेस्डर घुसी - सामने साड़ियों से ढँकी एक दीवार नजर आयी। दीवार के पीछे एक और दीवार, उसके पीछे........। अवध बिहारी इस वक्त खुद को वध बिहारी जैसा महसूस करने लगे। गाड़ी के अंदर सीट पर शरीर ढाले हुए महाशय अकबका गये। रोक दी गाड़ी। समझ गये कि आज उनकी नौकरी का सबसे सुनहरादिन है। चश्मा चढ़ाया, धीरे से दरवाजा खोला और कमर की ढीली बेल्ट ऊपर उठाते हुए बाहर खड़े हो गए। यह दीवार और कोई नहीं गुलाबी गैंगही था, जो कंधे से कंधा सटाए, एक दूसरे का पंजा कसकर जकड़े लौह दीवार बनकर खड़ा था। अच्छे-अच्छों को नानी-नाना ही नहीं, नाती-पोता तक याद दिला देने वाले गुलाबी गैंग की औरतों के किस्से तहसीलदार साब ने कई बार सुन रखे थे। अब उन्हें क्या पता था, आज वे खुद किस्सा बन जाएँगे। खैर ! प्रशासक थे, रोब-दाब दिखाना जानते थे। सहज लहजे में पूछा - कौन हो तुम लोग ? क्या करने आयी हो यहाँ!
आपका इस्तीफा। हम इस्तीफा लेने आयी हैं।गुलाबी गैंग एक स्वर में बोल उठा।
क्या ? इस्, इस्, इस्तीफा ?, तुम सब सनक तो नहीं गयी हो ?’
हाँ, हाँ, हम सऽब सनक गयी हैं। क्योंकि आप लोग बहुत ज्यादा समझदार हो गये हो। और
जरूरत से ज्यादा बुद्धिमानी दिखाने वालों को होश में लाने के लिए पागल बनना ही पड़ता है।
छोड़ो ये बेकार की बातें। अपना काम बताओ।
आपका इस्तीफा।गुलाबी गैंग का पुनः समवेत स्वर।
ऐसा कहने वाली तुम लोग होती कौन हो ? क्यों दूँ इस्तीफा ? मैंने किसकी हत्या की है ?
किसको लूटा है ? मेरे खिलाफ तुम्हारे पास है कोई सबूत ?’
सिर्फ सबूत ही नहीं, गवाह भी है मेरे साथ - जो नियम की आड़ में खेली जा रही तुम्हारी घिनौनी, बेहया करतूतों का कच्चा चिट्ठा खोलेगा।
तो देर किस बात की ? दिखाओ सबूत, लाओ न गवाह।
            बगल में खड़ी भीड़ में से एक पच्चीस साल का नौजवान निकल आया, जिसके हाथ में पालीथीन की थैली लटक रही थंी उसमें से नौजवान ने निकाली एक फाइल, जो कि उसके गाँव में वर्षो से मचे हुए जमीनी विवाद से संबंधित थी। वह युवक गुलाबी गैंग आौर तहसीलदार के ठीक बीच में आकर खड़ा हो गया और लगा दुखड़ा रोने - पिछले तीन सालों से मैं तहसील का चक्कर लगा रहा हूँ। एक अप्लीकेशन पर तहसीलदार की दस्तखत चाहिए, मेरे केस की सुनवाई तभी आगे बढ़ पाएगी। गाँव पर मेरे विरोधी मेरी पुश्तैनी जमीन हड़पते जा रहे हैं। घर पर बूढ़ी माँ की अकेली संतान हूँ। इस दादागिरी के खिलाफ मुकदमा भी नहीं लड़ सकता। आपकी एक दस्तखत से मेरी जमीन बच जाती, जिसको आप भी समझ रहे हैं। मैंने सूद पर कर्जा लेकर 2000 रुपया दिया भी, आपकी दस्तखत पाने के लिए। मगर अपने चपरासी से आपने ही कहलवा दिया कि दो और चाहिए, तब आप अपनी दस्तखत करेंगे।
युवक का दो टूक आरोप सुनते ही बिफर पड़े तहसीलदार - बंद करो ये बकवास। क्या सबूत है तुम्हारे पास ?’
बकवास तुम बंद करो। बड़े-बड़े चोर कभी सबूत नहीं छोड़ा करते। बताओ इस्तीफा देते हो या नहीं?’ गुलाबी गैंग उस युवक को पीछे हटाता हुआ तहसीलदार की नाम पर चढ़ आया।
हटो, हटो, पीछे हटो। खेल-तमाशा है क्या ? नहीं दूँगा इस्तीफा, क्या कर लोगी तुम सब ?’ तहसीलदार की जुबान से मानो कायरता चू रही हो।
दस्तखत की बात छोड़ो,वो तो मामूली पाप है तुम्हारा। 21 साल की शादी-शुदा आरती को हक दिलाने का झाँसा देकर साल-साल भर अपनी बंद कार में किसने घुमाया ? मजदूरों की बस्तियाँ उजाड़ कर चमकौवा बाजार खोलने की इजाजत ठेकेदारों को किसने दी ? और....... और पिछले ही साल 12 साल की मासूम बच्ची के साथ............ । तुम्हें इस्तीफा देना ही पड़ेगा- तहसीलदार।तैश खाकर गुलाबी गैंग की एक महिला ने धर ही तो लिया अवध बिहारी का कालर। बाकी ने न आव देखा न ताव। लगीं थप्पड़ बरसाने। गाल तो सबसे प्राचीन और निरापद जगह है थप्पड़ के लिए। उसमें कुछ नयी बात नहीं। यहाँ तहसीलदार की नाक को घूसा मिला,सिर को चाटा, दोनों कानों को ऐंठन और गर्दन को बारी-बारी से कई पंजे हासिल हुए। जाने-अनजाने, सायास या अनायास कुछ औरतों ने लात भी जमा दिया हो, तो गारंटी नहीं। क्योंकि गुलाबी गैंग के चले जाने के बाद तहसीलदार साहब ; नहीं-नहीं, अवध बिहारी कमर के पीछे हाथ रखकर आह-ऊह करते हुए जमीन पर बैठ गये और ब्लैकबेरी मोबाइल निकाल कर पुलिस स्टेशन का नम्बर लगाने लगे।
            गुलाबी गैंग ने इस बार किसी छोटे-मोटे नहीं, बड़े खिलाड़ी पर धावा बोला था, इसलिए प्रतिक्रिया भी जोरदार मिलनी थी। किसी पत्थर पर पैर मारो और चोट न लगे - असंभव। सफाई की सनक में झाड़ियों से उलझ जाओ, और अंग-प्रत्यंग छलनी न हो - नामुमकिन। दहकती आग को छेड़ो और चिंगारी छिटक कर शरीर पर न पड़े - हो ही नहीं सकता। गुलाबी गैंग ने दरोगा को डण्डों से पीटा, जैसे-तैसे मामला थम गया, इस बार तहसीलदार को पीट दिया........... जिला प्रशासन के एक रहनुमा को, पूरी तहसील के मालिक को ? जिससे दो बातें करते हुए अच्छे-अच्छों की पैंट ढीली हो जाती है, गुलाबी गैंग ने आज उसी को ढीला कर दिया ? तीन दिन के अन्दर बुंदेलखण्ड के आसपास के गाँव सुर्खियों में छा गये। किस गाँव से गुलाबी गैंग कितने सदस्य धरे गये, आए दिन अखबार की अहम् खबर होती थी। हफ्ते भर के अंदर करीब पचास औरतें पुलिस गाड़ियों में भर-भरकर जेलखाने में ठूँस दी गयीं। उनमें दर्जन भर ऐसी स्त्रियाँ थीं - जो ढंग से गुलाबी गैंगका उच्चारण भी नहीं कर सकती थीं, जिन्हें दूसरे पर हाथ छोड़ने की कल्पना मात्र से कंपकपी छूटती थी। सारी औरतों को पुलिस वैन में लादकर ले आया गया जिला मुख्यालय, और गर्दन पकड़-पकड़कर धक्का देते हुए नजरबंद कर दिया जिला कारागार में। कुछ औरतें ऐसी भी घसीट कर लाई गयीं थी, जिनकी गोंद में साल-डेढ़ साल के दुधमुँहे बच्चे थे। वे बच्चों को गाँव पर छोड़कर आयी थीं। जेलखाने में बेटों के लिए तड़पती रोती माँओं ने जेल निरीक्षक से गिड़गिड़ाकर फरियाद की मैं बेकसूर हूँ - मुझे छोड़ दो। मगर सत्ता के कान न जाने कितने बहरे होते हैं। हजार सौ प्रतिशत व्यर्थ गयी उन औरतों की फरियाद। तीन दिन, तीन रात, तीन सुबह, तीन शाम जेल प्रशासन की ओर से उन्हें वह आघात मिला, जिसके बारे में उन्होंने जानना तो बहुत दूर कभी कल्पना तक नहीं की होगी। शरीर का वह कौन सा हिस्सा था, जहाँ पुलिसिया मार के काले-नीले निशान न पड़े हों ? पीठ , पेट और पैर पर सबसे ज्यादा। कोई औरत इस काबिल नहीं रही कि ढंग से चल-फिर सके, सांस ले सके, दो शब्द बोल सके, हँसना तो दूर,
दो बूँद आँसू रो सके। पुलिस की चैकसी में उन्हें बाहर लाया जाता था, जो चार कदम चलते  
ही दर्द के मारे जमीन पर बैठ जाती थीं। पुलिस ने अधमरा कर डाला सबको। पाँच दिन गुजर गये, छः दिन गुजर गये, सप्ताह भी गुजरने लगा। वे औरतें जो अबोध बच्चों से बिछुड़कर जेलखाना आ गयी थीं - विक्षिप्त होने लगीं, और पागलों जैसी हरकतें करने लगीं- हे ! हे ! कोई मेरे बच्चे को मत छूना, मार डालूँगी, काट डालूँगी, नोंच डालूँगी। आ, , मार मुझे और मार, और.........। नहीं बताऊँगी, आ रही हूँ मैं। अरे, अरे, कोई मेरे बच्चे बच्चे को दूध क्यों नहीं पिलाता ?’ इसी तरह जेल में रोते-चिल्लाते, पछाड़ खाकर विलाप करते वे औरतें बेहोश होकर टूटे-फूटे फर्श पर गिर पड़तीं।
            दसवें दिन की सुबह 10 बजे जिला मुख्यालय का आकाश नारों की गूँज से काँपने लगा। एक साथ बच्चे, बूढ़े, नौजवान, अमीर, गरीब, अनपढ़,शिक्षित, बेरोजगार, नौकरीशुदा सब समुद्री जन सैलाब में शामिल होकर सरकार, प्रशासन, पुलिस और राजनेताओं के खिलाफ दुस्साहसिक नारे लगा रहे थे। सैकड़ों गाँवों के आम, गुमनाम, बेनाम, बेजान चेहरे चल उठे थे गुलाबी गैंग का साथ देने। पुलिस प्रशासन मुर्दाबाद’, ‘जिलाधिकारी होश में आओ-, ‘अब तो यह खुलेआम है - तहसीलदार बदनाम है।जैसे नारों को सम्भाल पाने के लिए दसों दिशाएँ कम पड़ रही थीं। जुलूस के आगे-आगे गुलाबी गैंग की सैकड़ों स्त्रियाँ और पीछे-पीछे बाढ़ के मानिंद उमड़ता हुआ जनसमूह। एक साथ नारा उठता - गुलाबी गैंग जिन्दाबाद।समूचा पुलिस-तन्त्र अवाक, मुँह में जुबान नहीं, हाथों में हिम्मत नहीं, कलम में दम नहीं कि इस जनगणके खिलाफ रत्ती भर भी जाने को सोच सके। जिला प्रशासन लाचार, हताश, अपराधी सा चुपचाप मामूली चेहरों की यह असाधारण ताकत खड़े-खड़े देख रहा था |

  
 संपर्क

भरत प्रसाद
सहायक प्रोफ़ेसर
हिंदी विभाग
पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय
शिलांग , मेघालय ...793022
मो.न. 09863076138

रविवार, 15 जुलाई 2012

विमल चन्द्र पाण्डेय का संस्मरण - ग्यारहवीं किश्त

विमलचन्द्र पाण्डेय 

पिछली किश्त में आपने पढ़ा कि यू.एन.आई.की नौकरी विमल के लिए मानसिक के साथ साथ आर्थिक रूप से भी भारी पड़ रही होती है | मानसिक खुराक के लिए तो वे साहित्य , फिल्मों और अपने दोस्तों की शरण में जाते हैं , लेकिन आर्थिक दिक्कतों से कैसे निपटा जाए , समझ में नहीं आता | उन्हें आकाशवाणी इलाहाबाद में अपनी कहानी के प्रसारण के जरिये इस परेशानी से निकलने का एक रास्ता दिखाई देता है | वे वहाँ जाते हैं और उनकी कहानी वहाँ से प्रसारित भी हो जाती है , लेकिन वहाँ का गलीज वातावरण उन्हें राहत देने के बजाय  कुल मिलाकर उन्हें कष्ट पहुंचाने वाला ही साबित होता है | 
पिछले दस हफ्तों से , जब से  विमल का यह संस्मरण 'सिताब दियारा' ब्लाग पर चल रहा है , बतौर ब्लागर इसका मैं पहला पाठक होता हूँ | हालाकि मैं  यह जानता हूँ कि इस संस्मरण में आगे  मैं कहीं नहीं आने वाला , लेकिन रविवार की प्रत्येक सुबह , मेरे भीतर एक अजीब सी हलचल , उत्सुकता  और रोमांच रहता  है ,  कि आज यह संस्मरण मेरे भीतर से गुजरेगा .|..इसमें विमल जिस तटस्थता के साथ अपने दिनों को याद करते हुए  हम सबके जीवन के पन्नों को उलट रहे होते हैं , वह वाकई इसे दिल के बहुत करीब ले आता है ...| बतौर माडरेटर मेरे लिए यह गर्व का विषय है कि विमल का यह संस्मरण 'सिताब दियारा' पर छप रहा है ...| 


                                             तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर विमलचन्द्र पाण्डेय के संस्मरण 
                                                            ई इलाहाबाद है भईया की 
                                                                   ग्यारहवीं किश्त

                        
                          17...

चूँकि मेरा कहीं कोई ऑफिस नहीं था, मैंने दुर्गेश के ऑफिस में ही बैठना शुरू कर दिया था. दिन भर हम वहाँ बैठे दुनिया जहान की बातें करते रहते और कोई खबर मिलती तो मैं दुर्गेश के कंप्यूटर और इन्टरनेट कनेक्शन का प्रयोग करता जिससे मेरे साइबर कैफे के पैसे बच जाते. इस पर दुर्गेश का कहना था की मुझे उसे चाय वाय पिलानी चाहिए लेकिन चाय पिलाने के मामले में दुर्गेश ज़रा भी कंजूस नहीं था और उसके पास पैसे होते तो वह ज़रूर खर्च करता था.

उसका कहना था कि उसके पास नॉलेज बहुत है लेकिन उसका मुँह छोटा है ((((({मुहावरा वाला छोटा मुँह नहीं } इसलिए अक्सर लोग उसे सीरियसली नहीं लेते. दुर्गेश से ज़्यादा स्पष्टवादी इंसान मैंने सिर्फ़ हिंदी सिनेमा के परदे पर देखा था इसलिए उसकी कुछ बातें पचाने में मुझे तब तक बड़ी दिक्कत होती थी जब तक मैंने उसे ठीक से समझा नहीं था. वह संघ से जुड़ा हुआ था और जब मैंने इस पर एकाध बार कुछ फिकरेबाजी की तो उसने मुझे साफ़ शब्दों में समझाया कि मैं बाहर यानि फील्ड में इस बात को न कहूँ क्योंकि बहुत से बेवकूफ लोग हैं जो संघ कि महत्ता नहीं समझते. मैंने कहा कि आखिर ऐसी जगह से जुड़ के क्या फायदा कि कहीं खुल के बताया भी न जा सके. मेरी ऐसी बातों पर अक्सर वह चिढ़ कर पूछ बैठता, “ई बताओ बिमल भाई, तुम कम्युनिस्ट हो का ?” मैं उसके इस आरोप का खंडन करता और मैं जितना खंडन करता उतना ही उसका शक पुख्ता होता जाता. मेरा डर ये था कि कहीं वो मुझसे नाराज़ हो गया तो मुझे इलाहाबाद कि सड़कें पैदल नापनी पड़ेंगीं. मैं उससे स्थानीय चीज़ों पर बात करना चाहता और वह भारत पाकिस्तान संबंधों या फिर अर्थ नीति जैसी चीज़ों में रूचि दिखाता. कहीं पढ़े हुए लेख में से कुछ तथ्यों में अपने विचार जोड़ कर वह अक्सर ऊँची आवाज़ में कुछ भाषण टाइप का खुलेआम देता और मेरी ओर देख कर मुस्कराता हुआ कहता, “देखे बिमल भाई, है पूरे इलाहाबाद में कोई के पास एतना नॉलेज ?” मैं कहता कि नहीं और अगर होगा भी तो हमें कैसे पता चलेगा जब तक वह चौराहे पर खड़ा होकर उस नॉलेज को उगलने न लगे. वह हँसता और इसे अपनी तारीफ समझता. उसका सेंस ऑफ ह्यूमर काफ़ी खराब था और मैंने शुरू से देखा है कि मेरी दोस्ती उन्हीं लोगों से अच्छी और लंबी चलती है जो किताबें पढ़ते हों या नहीं, फिल्मे देखते हों या नहीं, किसी भी कला के प्रति उनमे कोई जागरूकता हो या नहीं, उनका सेंस ऑफ ह्यूमर ज़रूर अच्छा होना चाहिए. मेरे कुछ मित्रों का कहना है कि मेरे भीतर गंभीरता का किंचित अभाव है जिसके कारण मुझे साहित्य में गंभीरता से नहीं लिया जा रहा जबकि मेरे बाद आये कई होनहार लेखक कितने ही पुरस्कार पा चुके हैं और किताबें छपवा चुके हैं जबकि मैं अभी तक उसी एक किताब को थामे बैठा हूँ जिसकी पाण्डुलिपि कई दोस्तों के कहने पर एक प्रतियोगिता के लिए भेजी थी. मैं उनकी बातों को गंभीर हास्य की श्रेणी में रखता हूँ और मुस्करा देता हूँ. शुरू-शुरू में एक अच्छे मित्र की तरह मैंने दुर्गेश को समझाने की बहुत कोशिशें की थीं कि उसे हर जगह बिना पूछे डींगें नहीं हांकनी चाहिए या छोटे अख़बारों के पत्रकारों को अपनी पढ़ाई से नहीं हडकाना चाहिए. इस पर उसका कहना था कि मैं चूँकि इलाहाबाद का नहीं हूँ इसलिए मुझे नहीं पता कि यहाँ मूतना कम और हिलाना ज़्यादा पड़ता है. मैं कहता कि मैं बनारस का हूँ और वहाँ इलाहाबाद से कुछ भी अलग नहीं है. मैं दोस्तों को अपनी सीमा तक समझाने की कोशिश करता था और रचनाकार दोस्तों की रचनाओं की कमियां निकालते वक्त मुखातिब के दिए संस्कारों का प्रयोग करता था लेकिन मैंने पाया कि आम ज़िंदगी और साहित्य, दोनों ही जगह जाहिलों की एक जैसी ही भीड़ है जो अपनी सकारात्मक आलोचना पर भी मारने चढ़ बैठते हैं. कई साहित्यकार मित्रों के साथ मेरा अनुभव यह रहा है कि वे अपनी तारीफ तो बड़े धैर्य से ‘अच्छा, अरे वाह’ करके सुनते हैं लेकिन कोई कमी निकालने पर सामने वाले की समझ पर ही ऊँगली उठाने लगते है और हद तो ये कि बुरा मान जाते हैं. ऐसे लोग सच्ची प्रतिक्रियाएं डिजर्व नहीं करते और मैं झूठ बोलना पसंद नहीं करता. अब मैंने बुरी और औसत चीज़ों पर बिना मांगे प्रतिक्रिया देने की अपनी जानलेवा गन्दी आदत छोड़ दी है और उन्ही चीज़ों पर प्रतिक्रिया देता हूँ जो मुझे अच्छी लगती हैं.

खैर, दुर्गेश इलाहाबाद छोड़ने के कारण और उद्देश्य खोजने लगा था. शेषनाथ तैयारी के समय को साहित्य पढ़ने में बिता कर अब किसी भी तरह की रूटीन तैयारी के लिए अयोग्य हो चुका था. साहित्य उसका नशा बन चुका था और इलाहाबाद उसकी आदत. तैयारी के लिए आने वाले नए रंगरूटों को वह दुख भरी आवाज़ में समझाया करता, “देख बबुआ, जदी कवनो कम्पटीसन निकाले के बा नू त ई कुल कहानी कविता से दूरे रहीह जनल नाहीं त एकर नसा बड़ा बाउर होला.” वह भी अब इलाहाबाद से बोरिया-बिस्तर उठा कर आरा शिफ्ट होने की तैयारी में था. मगर इन सबके बीच मुझे इलाहाबाद में मजा आने लगा था. मेरी हर तरह की थकान दूर करने के लिए दुनिया की ढेरो किताबें और ढेरों फ़िल्में थीं जिनपर मैं विवेक से बिना थके घंटों बातें कर सकता था. ज़िंदगी में रोमांच के कई कारण थे. एक तरफ पत्रकारिता का असंतोष भरा माहौल था जो कई बार ऐसे हैरतअंगेज झटके दिया करता था जिनसे निकलने में महीनों लग जाते थे तो दूसरी तरफ एक साहित्यिक दुनिया थी जिसके बारे में मेरे कई भरम छंटते जा रहे थे.

एक दिन अचानक कैलाश जी की तरफ से सन्देश आया. उन्होंने कहा कि उनके एक मित्र के यहाँ ममफोर्डगंज में पार्टी है और मैं विवेक को लेकर चला आऊँ. विवेक वरिष्ठ और गरिष्ठ टाइप के लोगों से बहुत घबराता था और उसका कहना था कि जहाँ बहुत अधिक साहित्य चर्चाएँ होने लगती हैं वहाँ वह घबराने लगता है. वह बुरा मान जाता था कि साहित्य के लोग हमेशा ये बताने में क्यों लगे रहते हैं कि उन्होंने क्या-क्या और कितना पढ़ा हुआ है. कैलाश जी ने मुरलीधर जी, हिमांशु जी और देवेन्द्र जी को भी आमंत्रित किया था और देवेन्द्र जी से ये इसरार किया था कि वो अपनी ग़ज़लों वाली डायरी लेकर आयें. हमें ये नहीं पता था कि वहाँ अंशुल त्रिपाठी को भी आमंत्रित किया गया है. मैं विवेक के साथ फव्वारा चौराहा पहुंचा और वहाँ से कैलाश जी ने हमें रिसीव किया और अपने दोस्त बुद्धिसागर के कमरे पर ले आये. बुद्धिसागर बहुत प्यारे इंसान थे और उनकी नयी नयी नौकरी लगी थी . मेरी याद्दाश्त के मुताबिक ये पार्टी इसी उपलक्ष्य में थी. धीरे धीरे सारे मेहमान पहुँच गए और बारिश का सामना करते हुए अंशुल भाई भी वहाँ पहुँच गए. उन्हें देख कर हम सबको काफ़ी खुशी हुई क्योंकि वह कम जगहों पर पहुंचा करते थे. मुझे उनकी कवितायेँ पसंद थीं और मैं चाहता था कि आज उनकी भी कवितायेँ सुनी जाएँ. मुझे नहीं पता था कि श्रोताओं ने ये मांग अंशुल से पहले ही कर रखी थी और वह अपनी कुछ कवितायेँ लेकर आये भी थे.

तीसरे पैग के बाद कैलाश जी को अचानक देवेन्द्र जी की डायरी याद आई और उन्होंने उनसे निवेदन किया कि वे लेकर आयें और अपनी गज़लें सुनाएँ. तब तक किसी ने कहा कि पहले अंशुल की कवितायेँ सुन ली जाएँ लेकिन कैलाश जी ने पहले देवेन्द्र जी की ग़ज़लों के प्रस्ताव पर जोर दिया. देवेन्द्र जी डायरी लेकर आये और उन्होंने गज़लें सुनानी शुरू कीं. मुझे उस गज़ल में सिर्फ़ ‘शाम होती है’ याद है, जब फूलों की पंखुडियां झुक जाएँ (जैसा कुछ) तो शाम होती है, इंतजार करती आंखें थम जाएँ (जैसा कुछ) तो शाम होती है.... हर लाइन में देवेन्द्र जी के ’शाम होती है’ कहने से पहले ही अंशुल तेज़ आवाज़ में कह उठते, “शाम होती है”. देवेन्द्र जी ने उस एक गज़ल के बाद गुस्से के मारे अपनी डायरी बंद कर ली और अपना नया पैग बनवाने लगे. थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा जिसे तोड़ने की पहल करते हुए अंशुल को अपनी कविता सुनने का आग्रह किया गया. अंशुल ने फटाफट अपना चौथा पैग खत्म किया और एक पत्रिका खोली, भूमिका में उन्होंने बताया कि इस कविता का रूसी भाषा में अनुवाद हो चुका है और एकाध और भाषाओँ में होने वाला है. यहाँ पर एक और आंख खोलने वाली घटना का ज़िक्र करता चलूँ. मेरी एक कहानी का पंजाबी में और दो कहानियों का तेलुगु और उड़िया में अनुवाद उस समय तक हो चुका था और जब मैंने पहले-पहल इसे एक खुशखबरी की तरह अपने बचपन के दोस्त आनंद को फोन करके बताया था तो उसकी प्रतिक्रिया कुछ यूँ थी, “अनुवाद तुम किये हो?”

“नहीं यार, हम कैसे करेंगे, अनुवादकों ने किया है हमसे इजाज़त लेकर..”

“तो साले इसमें तुम्हारी क्या अचीवमेंट है ?”

मैं बोलने में कतई अच्छा नहीं हूँ. बहुत सारे आक्षेपों और बकवास आरोपों के मुंहतोड़ जवाब मुझे बाद में सूझते हैं लेकिन अक्सर मैं त्वरित प्रतिक्रियाएं तर्कों के साथ नहीं दे पाता. हालाँकि अच्छी नीयत वाले दोस्तों को क्या जवाब देना.

“साले एक ही कहानी के लिए कए बार मुबारकबाद लोगे ? अनुवाद हो गया तो इसमें तुम्हारा क्या अचीवमेंट है बे ? अच्छा लिखे थे इसका मुबारकबाद तुमको पहिले ही मिल चुका है काम खतम, अब अगली कहानी पे काम करो जम के.”

तो मुझे लगता है कि अनुवाद होना कोई इतनी बड़ी घटना नहीं है जितनी एक अच्छी रचना पूरी करना जिससे लिखने वाला संतुष्ट हो. आपको मानना है तो अनुवाद और पुरस्कार जैसी  चीज़ों को बाद में इसका प्रोत्साहन मान सकते हैं लेकिन उपलब्धि नहीं.

अंशुल ने अपनी कविता सुनानी शुरू की और सभी लोग शांत होकर सुनने में लग गए. कविता सुनाकर उन्होंने श्रोताओं की ओर प्रतिक्रिया पाने के लिए देखा. सबने एक स्वर में तारीफ की और मैंने दो कदम आगे बढ़कर क्योंकि मुझे कविता बहुत अच्छी लगी थी. हिमांशु जी ने भी न्यूनतम शब्दों का प्रयोग किया और उस कविता को बुरा नहीं बताया. अगर किसी रचना में हिमांशु जी कोई कमी न निकालें तो इसका साफ़ मतलब होता है कि वह बहुत ही बेहतरीन रचना है. जब मुरलीधर की बोलने की बारी आई तो उन्होंने शांत और स्पष्ट आवाज़ में कुछ यूँ कहा, “कवितायें आप अच्छी लिखते हैं और ये कविता भी मुझे अच्छी लगी लेकिन इसमें जिस राग का ज़िक्र आपने किया है वह उस समय का का राग नहीं है जिस समय का आपने कविता में बताया है.”

कुल मिला कर ये कि कविता में एक राग का ज़िक्र आया था जिसे कवि ने एक समय का राग बताकर उस समय से जोड़ा था लेकिन मुरलीधर का कहना था कि ये उस समय का राग है ही नहीं. अंशुल ने थोड़ी देर के लिए उनसे बहस की फिर अपनी बात पर अड़ गए. उन्होंने मीर और ग़ालिब की कुछ बातों और एकाध शेरों का ज़िक्र किया और मुरलीधर फिर भी ना माने तो वह कविता में अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात करते हुए ज़िंदगी में अभिव्यक्ति की आज़ादी का फायदा उठने लगे. मुरलीधर जी फिर भी राग के समय से समझौता करने के लिए तैयार न हुए तो अंशुल भड़क गए.

“कौन भोसड़ी वाला कहता है कि ये सुबह का राग है, मैं इस कुर्सी को कुर्सी नहीं मेज़ कहूँगा तो मेरा कोई क्या उखाड़ लेगा. मैं इस दरवाज़े को आलमारी कहूँगा और इस किताब को कंप्यूटर तो कोई क्या कर लेगा..मैं जो चाहे वो कहूँगा.”

कविता पाठ समाप्त हो चुका था. पार्टी भी समाप्त हो चुकी थी. बारिश तो कब की रुक गयी थी. सबके घर जाने का वक्त हो गया था.
                               
                              18...  

ज़िंदगी के नए सबक सीखता मैं यूएनआई में अपने प्रोबेशन के दस महीने पूरे कर चुका था और अब कन्फर्मेशन के लिए मुझे लखनऊ जाकर एक परीक्षा देनी थी. मैं लखनऊ गया और मनोज के घर पर ठहरा. मैंने मनोज से वादा किया था कि मैं परीक्षा देकर वापस उसके कमरे पर आऊंगा लेकिन वहाँ मेरी इतनी क्लास ली गयी कि मेरा कहीं भी जाने का मूड खत्म हो गया और मैं बस पकड़ कर वापस इलाहाबाद चला आया. क्लास लेने वाले अपनी जगह बिलकुल सही थे मेरा काम में मन नहीं लगता, मैं आलसी हो गया हूँ और अगर ऐसा ही रहा तो वे मेरा ट्रान्सफर करा देंगे आदि आदि. चूँकि वे सारी बातें सच बोल रहे थे इसलिए मैं दुखी तो हुआ लेकिन उनका प्रतिवाद करना मैंने ठीक नहीं समझा.

अगले कुछ महीनों बाद मेरा कन्फर्मेशन हो गया और मुझसे पार्टी की मांग की गयी. इलाहाबाद के पार्टीप्रेमी लोगों से मिलने से पहले दिल्ली में मैं सिर्फ़ शशि शेखर को जानता था जो किसी भी मौके को पार्टी के लिए मुफीद बता कर तुरंत पार्टी की मांग कर बैठता था, जैसे अगर आपकी शादी हो रही हो तो, “पार्टी दो शादी करने जा रहे हो.” या फिर आपका तलाक हो रहा हो तो, “पार्टी दो गुलामी से आज़ाद हो रहे हो.” किसी के घर में बच्चा पैदा हुआ हो तो, “बधाई हो, दुनिया की सबसे बड़ी नेमत मिली है पार्टी दो.” या फिर किसी के घर में कोई मर गया हो तो, “चलो इस झांटू दुनिया से मुक्ति मिली, उनकी आत्मा की शांति के लिए एक छोटी सी पार्टी होनी चाहिए.”

मैंने पार्टी दी और मेरी तनख्वाह बढ़ जाने के बाद मैं सोचने लगा कि अब ये एक कमरे वाला सिस्टम छोड़कर कोई दो कमरों वाला सेट लेना चाहिए जिसमें दोस्त मित्र आयें तो आराम से बैठें. मैंने विवेक से कहा कि मेरे लिए कोई दो कमरे का सेट देखे जो ढाई हजार के आसपास में मिल जाए. विवेक ने कई कमरे मुझे दिखाए और आखिरकार मैंने पिकेट चौराहे पर एक कमरा पसंद किया. अलग-अलग समय पर इंसान के दिमाग में क्या फितूर भरा रहता है, यह कुछ वक्त बाद बताना कितना असंभव हो जाता है. उस कमरे का पूरा जुगराफिया चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा था कि इसमें कोई नॉर्मल इंसान नहीं रह सकता लेकिन मुझे पता नहीं उस कमरे में क्या बात दिखी कि मैंने उसे किराये पर ले लिया. कीडगंज की उस पतलियेस्ट (उससे पतली गालियाँ मैंने विश्वनाथ मंदिर (वाराणसी) गली में भी कम ही देखीं थी ) गली में एक छोटा सा दरवाज़ा था जिससे अपनी बाईक निकलने पर उसका पिछला टायर सामने वाले घर के चबूतरे पर चढ़ जाता था. अन्दर घुसने पर अचानक आप खुद को एक घुप्प अँधेरे में पाते थे और ये सोचकर दिल दहल जाता था कि अभी एकदम काले अँधेरे से भरी पतली पतली सीढ़ियों वाली दो मंजिलें ऊपर चढ़ने के बाद आपका कमरा आयेगा. जब इस तरह जान पर खेल कर ऊपर पहुंचे तो इस बात से ही क्या फर्क पड़ जायेगा कि ये दो नहीं तीन कमरों का सेट है. दरअसल प्राप्त जानकारी के अनुसार यह एक कायदे का मकान था लेकिन बँटवारे के बाद दो भाइयों ने इसे स्केल से नापकर इसके बीचोंबीच एक दीवार उठा दी थी. इस दीवार ने उस पूरे मकान की ख़ूबसूरती को लील लिया था और दीवारों के दोनों तरफ वाले घरों में दिन भी रात जैसी होती थी. बँटवारे के नुकसान पर किसी को कुछ लिखना या शोध करना हो तो वह सिर्फ़ इस मकान को देख ले. इस घर के मालिक के रूप में विवेक को सुशील भईया मिले थे जिनके लिए हर दिन होली और हर रात दीवाली हुआ करती थी. वह उठने के साथ ही पहले रात के हैंगओवर को कम करने के लिए दो चार पैग लगाते थे और फिर दोपहर के खाने को (अगर खाते तो) पचाने या भुलाने के लिए तीन चार पैग लगाते, शाम होते ही उन्हें लगने लगता कि शाम का नशा जो होता है वैसा मजा सुबह या दोपहर में पीने से नहीं आता. फिर वो रात में पीते और कुछ ज़्यादा हो जाने पर अक्सर बिना खाए सो जाते. लब्बोलुआब ये कि वह महीने के तीसों दिन चौबीस घंटे नशे में रहते थे. कहने को तो वे अपने परिवार सहित ममफोर्डगंज में अपने दूसरे घर में रहते थे लेकिन उनकी रातें और लगभग दिन अक्सर यहीं बीतते. दिन में कुछ घंटों के लिए अगर वे अपने ऑफिस जाते (जैसा वो कहते थे) तो वहाँ थक जाने के कारण सीधे यहीं आ जाते और पीने के कार्यक्रम का शुभारंभ कर देते. अनवरत नशे में रहने के कारण वह चीज़ों में जल्दी फर्क नहीं कर पाते थे जिसके कारण वह बहुत दुखी रहा करते थे और उन्हें लगता था कि दुनिया में सब उल्टा-पुल्टा हो चुका है. इस दुनिया के बनिस्पत उन्हें अपनी दुनिया बहुत अच्छी लगती थी ,जिसका दरवाज़ा खोलने के लिए ही वह पीया करते थे.

जब मैं वहाँ शिफ्ट कर गया तो मुझे बड़ी शिद्दत से एहसास होने लगा कि मैंने गलती की है. सुशील भईया, जब तक मैं वहाँ रहा, तब तक कन्फ्यूज रहे कि उनसे कमरे की बात किसने की और रहता कौन है. वह अपने कमरे में रहते और मुझे या विवेक को फोन करके परेशान करते रहते. एक दिन मुझसे मिलने आ रहे विवेक को उन्होंने पहली मंजिल यानि अपने कमरे के पास रोक लिया.

“कहाँ थे दो दिन आये ही नहीं ?”

“हाँ जरा बाहर चले गए थे इलाहाबाद के.”

“अरे बाहर ? लेकिन कमरे की बत्ती तो जल रही थी.”

“हाँ तो जल रही होगी. विमल तो था ही यहाँ.”

“अच्छा विमल को रहने के लिए बोल के गए थे क्या ?”

“नहीं, बोलना क्या है, वो तो रहता ही हैं यहीं तो...?”

“तो फिर तुम कौन हो ?”

“मैं विवेक हूँ भईया, विमल का दोस्त.”

“कमरे की बात तुमने ही की थी ना...?”

“हाँ मैंने ही की थी आपने दोस्त विमल के लिए...”

विवेक ने आकर मुझे बताया तो मैंने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया क्योंकि वो मुझसे पहले भी ऐसी बहकी-बहकी बातें कर चुके थे और मैं उनसे सुहानुभूति रखता था. लेकिन दिक्कत तब होने लगी जब मैं एक रात बाहर से खाना खाकर आ रहा था और वह लड़खड़ाते हुए अपने कमरे से निकाल कर बाथरूम की तरफ जा रहे थे. उन्होंने मुझे रुकने का इशारा किया. वह इत्मीनान से पेशाब करते रहे और गुनगुनाते रहे, “लोग कहते हैं मैं शराबी हूँ.” मैं खड़ा उनका इंतजार करता रहा.  पूरे पांच मिनट तक गुनगुनाते हुए पेशाब करने के बाद वे मेरे पास आये . उन्होंने गंभीर आवाज़ में मुझसे पूछा, “और भाई इतनी रात को ?”

“खाना खाने गए थे भईया.”

“अकेले ? विमल कहाँ है?”

मैंने आपने चारों तरफ देखा. वह मुझसे ही मुखातिब थे.

“भईया हम ही विमल हैं, आपको बताये तो थे...”

“हाँ हाँ याद आया विमल हो तुम, तुम उधर थाने वाली सड़क पे रहते हो ना ?”

“नहीं भईया वो तो विवेक है.”

“विवेक ही रहता है ना ऊपर?”

“नहीं भईया ऊपर हम रहते हैं.”

“अच्छा तो विवेक कहाँ रहता है ?”

“विवेक थाने वाली सड़क पे रहता है.”

“अच्छा ! मगर कमरे की बात जिसने की थी उसका नाम तो विमल था.”

“नहीं भईया मेरा नाम विमल है और जिसने आपसे कमरे की बात की थी, जो थाने वाली सड़क पर रहता है और जो मुझसे अधिक मोटा, लंबा और गोरा है उस इंसान का नाम विवेक है.”

“हाँ यार, याद आया वो हीरो जैसा लगता है ना ? अब याद रहेगा, जो गोरा चिट्टा लंबा है वो विवेक है और जो लपूझन्ना जैसा है उ विमल है. ठीक है ना ?”

“हाँ भईया बिलकुल ठीक.”

मुझे लगा मैंने उन्हें अच्छी तरह से समझा दिया है और वह समझ गए हैं लेकिन इसके हफ्ते भर बाद उन्होंने मुझे फिर अविश्वसनीय तरीके से रोक लिया और कहने लगे, “क्या बात है विवेक, कल तुम बत्ती बुझाये बिना ही चले गए थे.?”

“नहीं भईया बंद तो किये थे.”

“अरे जली हुई थी. अच्छा रहते तुम ही हो ना ऊपर ?”

“जी हाँ मैं ही रहता हूँ ऊपर. मैं विमल हूँ और मैं हमेशा निकलने से पहले बत्ती बुझा देता हूँ.”

“ठीक करते हो विमल लेकिन तुम पहले बहुत मोटे लंबे थे, अब क्यों दुबराते जा रहे हो उस लपूझन्ने विवेक की तरह....?”

मैं समझ गया कि अब जल्दी से जल्दी इस रूम को छोड़ देने का वक्त आ गया है. मैंने फिर से विवेक के कन्धों पर ये ज़िम्मेदारी डाली कि वह मेरे लिए जो कमरा खोजे उसमें कुछ भी ना हो लेकिन रोशनी ढेर सारी हो.

सुशील भईया रात को अचानक मुझे फोन करते और पूछते, “कहाँ हो विवेक ?”

मैं कहता, “अभी आने में दो घंटे लगेंगे भईया.”

इसके बाद वह मेरे सामने बैठे विवेक को फ़ोन करते और पूछते, “विमल, कहाँ हो, कितनी देर में आओगे ?”

“भईया मैं तो अपने घर पर हूँ और वहाँ विमल रहता है मैं नहीं.”

वह कहते, “विमल ने अभी फ़ोन किया था कि आने वाला है दस पन्द्रह मिनट में. तुम भी आ जाओ, दोस्त से मिलना हो जायेगा.”

हमने बाद में समझा कि वह अपने अकेलेपन से बहुत परेशान थे. मुझे कभी-कभी ये भी लगता कि कहीं ये शराबी हमसे मजा तो नहीं ले रहा लेकिन बाद में विवेक ने बताया कि उन्हें कन्फ्यूज करने में उसका भी हाथ था. वह शुरू में कई बार अपने नंबर पर विमल बनकर बात कर लिया करता था. शराब ने उन्हें दुनिया से काट दिया था और शराब के साइड इफेक्ट्स ने अपने परिवार से. वह मेरी या विवेक की मौजूदगी में उस भूत बंगले जैसे घर में खुद को सुरक्षित महसूस करते थे. जिस भी दिन मुझे देर हो जाती, वह फोन करके इधर उधर की बातें करते और फोन करने का कारण जताते हुए कहते, “एक बीस रुपये का वोडा लेते आना.”

वह बीस रुपये से ज़्यादा रिचार्ज नहीं कराते थे. मैंने और विवेक ने उनके लिए कितने ही बीस रुपये के वोडाफोन के रिचार्ज वाउचर लाकर दिए जिनमें से कई के पैसे विवेक को आज तक वापस नहीं मिले.


                                                                                                                     क्रमशः .......


                                                                                                    प्रत्येक रविवार को नयी किश्त ....



संपर्क - 

विमल चन्द्र पाण्डेय 
प्लाट न. 130 - 131 
मिसिरपुरा , लहरतारा 
वाराणसी , उ.प्र. 221002

फोन न. - 09820813904
         09451887246


फिल्मो में विशेष रूचि