अशोक कुमार पाण्डेय
कुछ घाव हमारे मुल्क के सीने पर इस गहराई के साथ दर्ज हैं , कि अपनी तमाम
कोशिशो के बावजूद भी हम उन्हें जड़ से नहीं मिटा पाए हैं | और जब कभी वे मिटते हुए
या भरते हुए दिखाई देने लगते हैं , उनके जनक उन्हें फिर से कुरेद जाते हैं | ‘साम्प्रदायिक
वैमनस्य ’ एक ऐसा ही घाव है , जिसे गत दिनों फैजाबाद में फिर से कुरेदा गया है , और
जिसकी आग में अमन-चैन की वह नगरी जल उठी है | अशोक कुमार पाण्डेय की यह कविता उस नासूर की शिनाख्त तो करती ही है , साथ ही साथ आधुनिक दौर के ‘गोएबल्स’
और उनके बरक्स सभ्य समाज की भूमिका को भी रेखांकित करती है |
तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर अशोक कुमार पाण्डेय की
उद्वेलित करने वाली यह सामयिक कविता
तुम भी कब तक खैर मनाते फैज़ाबाद !
(एक )
सारी किताबों के मुक़ाबिल बस एक खंजर है
हमारे मुस्तकबिल के बरक्स माज़ी है एक घाईल
वे सवाल नहीं पूछते
वे सवालों का जवाब नहीं देते
वे तर्कों के बदले चुप्पियाँ परोसते हैं
वे झूठ को फैसलाकुन आत्मविश्वास से कहते हैं
और हम?
बस चुप
बस सवाल
बस जवाब
बस तर्क
बस सच
ये सच है कि साफ़ पानी में कमल कभी नहीं खिलते
पर हमारे सच को भी तो तुम्हारे
होठ कभी नहीं मिलते
(दो)
हमारी आलमारियाँ किताबों से भरी हैं
और हमारी जिंदगियां सवालों से
हम हर ह्त्या के बाद खड़े हुए काले झंडे लिए
हम हर हत्या के पहले शांति जुलूसों में चले
हमने हर वारदात के पहले किया सावधान
हम हर मुसीबत का लिए फिरते रहे समाधान
बस जब चली गोली हम नहीं थे वहां
बस जब जहर बरसा हम किये गए अनसुने
बस जब शहर जला हमें कर दिया गया शहर-ब-दर
हम अपनी खामोशियों के गुनाहगार रहे
वे जूनून बनके सबके सर पे सवार रहे
(तीन)
कहाँ है फैजाबाद?
दिल्ली से कितना दूर?
कितना दूर अहमदाबाद से?
रामलीला मैदान से कितना दूर?
फार्मूला वन रेस के मैदान से कितना दूर?
संसद भवन से तो खैर हर चीज हजार प्रकाश वर्ष की
दूरी पर है....
टीवी चैनल पर दंगो की खबर नहीं है
वहां लिखा है कल बस कुर्सी बदल रही है
(चार)
यह किसका लहू है कौन मरा?
(सवाल पूछ-पूछ के दिल अभी नहीं भरा?)
यह मियाँ का लहू है और यह बगल वाला हिन्दू का
डाक्टर से नहीं जिन्ना और सावरकर से पूछो
दोनों पहचानते थे अपना-अपना लहू
हम पागल थे जो कहते थे
लाल हैं दोनों
हम? पागल थे?
लहू लाल है एक रंग का कहने वाले पागल थे ?
बासंती चोले में फांसी पर चढ़ने वाले पागल थे?
(पांच)
कविता से बस उम्मीदों की उम्मीद किये बैठे न रहो
हम तो हैं अभिशप्त गवैये
गीत अमन के गायेंगे ही
चाहे काट दो हाथ हमारे
सच का ढोल बजायेंगे ही
तुम कब सच को सच कहके चीख उठोगे बोलो तो..
हम तो पाश की मौत मरेंगे
हम तो अदम के शेर कहेंगे
हम तो इस शमशान में भी
जीवन का आह्वान करेंगे
तुम कब मुर्दों वाले खेल के बीच खड़े हो हूट करोगे..बोलो
तो....
संक्षिप्त परिचय ....
लेखक अशोक कुमार
पाण्डेय सुपरिचित युवा कवि हैं |
राजनीतिक , सामाजिक और सांस्कृतिक वाम
जन-आन्दोलनों में
आप छात्र जीवन से ही सक्रिय भागीदारी निभाते रहे
हैं |
कई पुस्तकों के लेखक अशोक
कुमार पाण्डेय का कविता संकलन
‘लगभग अनामंत्रित’
गत वर्ष शिल्पायन प्रकाशन से छपा है
और काफी चर्चित भी हुआ है |
जैसे महत्वपूर्ण ब्लॉगों का संचालन भी करते हैं |
bahut badhia
जवाब देंहटाएंlaal salaam bhai.gazab ki kavitaa hai.
जवाब देंहटाएंहम पागल है (थे) जो कहते है (थे)
जवाब देंहटाएंलाल है दोनों
हम? पागल हैं ...........
हमारा पागलपन ही उनके लिए खतरा है और चुनौती है .भाई अशोक का आभार.प्रतिरोध बलन्द हो.
'किसी सुलगते हुए घर में एकाएक ग़ुम हो गया हूँ
जवाब देंहटाएंलपटें अब भी बराबर आ रही हैं ....'--- शेमशेर
दागे जा रहा हूँ सवाल पर सवाल पर 'निपट मुर्ख ' उधर ..'ज़ुबान गुंग है ' (शेमशेर ) बड़ी ही निर्लज्ज ...प्रायोजित चुप्पी ...'झूठ को फैसलाकुन आत्मविश्वास से कहते हैं '
और इधर है मेरा जूनून ...' चाहे काट दो हाथ हमारे सच का ढोल बजायेंगे ही '.....
इस वक़्त के प्रतिरोध की कविता है यह!
जवाब देंहटाएंअशोक कुमार पाण्डेय की सामयिक कवितायेँ सांप्रदायिक दंगों में जलते शहर फैजाबाद और मिडिया और प्रशासन की अनदेखी पर क्षोभ से भरे उद्गार ही नहीं बल्कि सभ्य होने का दावा करने वाले बुद्धिजीवी लोगों को एक ललकार भी हैं ! प्रतिरोध की इन सशक्त कविताओं के लिए अशोक को बधाई और रामजी का आभार !
जवाब देंहटाएंअशोक की कवितायेँ पढ़ना इसलिए भी सुखद है कि ये आम विषयों से अलग और वास्तविकता पर तीखा प्रहार करती हैं |अशोक कविता सिर्फ लिखने के लिए नही लिखते उनकी कवितायेँ सप्रयोजन ,सही वस्तुस्थिति और ना सिर्फ एक रुदन बल्कि व्यवस्था के खिलाफ एक आवाज़ और आव्हान भी हैं
जवाब देंहटाएं''हम तो पाश की मौत मरेंगे /हम तो अदम के शेर कहेंगे/हम तो इस शमशान में भी /जीवन का आव्हान करेंगे ....प्रसंशनीय ...धन्यवाद सिताब दियारा
समसायिक होते हुए भी जैसा की आपने आरंभिक भूमिका में कहा ---एक पुराने दर्द से रू- बी-रू करती कविता ...और यह केवल फैजाबाद की बात नहीं है...
जवाब देंहटाएंsamaj ke satya se sakshatkar karati hui ek behtareen krantikaari kavita hai
जवाब देंहटाएंहम है अभिशप्त गवैये
जवाब देंहटाएंगीत अमन के गायेंगे ही
चाहें काट दो हाथ हमारे
सच का ढोल बजायेंगे ही
बहुत खूब ...इस सच के ढोल का हर सूरत में बजते रहना निहायत जरुरी है भाई .....चाहें हाथ रहे ना रहे ...अशोक भाई की उनकी ख्याति के मुताबिक कविता ..बहुत बधाई
हमारी आलमारियाँ किताबों से भारी हैं
जवाब देंहटाएंऔर हमारी जिंदगियां सवालों से
सचमुच मंत्रमुग्ध होकर कई बार पढ़ा इस पंक्ति को. पूरी कविता तमाम सवाल करती हुई, सच कहें तो मन में उठाती हुई. अशोक भाई इस बेहतरीन कविता के लिए मेरी भी बधाई स्वीकार करिए. संतोष चतुर्वेदी
Achchi kavitayen...sitab diyara or ashok ko shubhkamnayen..
जवाब देंहटाएंहालिया वाकयात पर बेचैनी और गंभीरता से साथ लिखी गयी ये कवितायेँ बेहद महत्वपूर्ण हैं ....पहली कविता में आपकी नई कहन झलकती है ....कम शब्दों में और बेहद आसानी से बहुत कुछ कहती कवितायेँ ...ये ज़रूरी कवितायेँ हैं जिन्हें अधिक से अधिक पढ़ा और बनता जाना चाहिए ....शुक्रिया !
जवाब देंहटाएंहमारे वामपंथियों की यही आदत है, किसी भी बहाने किसी भी बहाने आर.एस.एस को बदनाम करो ,जब पोप ने इस्लाम के बारे में बोला ,तो राजेंद्र यादव टीवी में आये न तो पोप को कुछ बोला न इस्लाम के बारे में सिर्फ आरे.एस.एस को गरियाते रहे ,हिमांशु कुमार परेशां है बस्तर में आर.एस.एस की घुसपैठ से ,जब बोडो आदिवासी और बंगलादेशी मुस्लिमो के बीच संघर्ष की बात होती है आदिवासी-आदिवासी का राग अलापने वाले के मुह में दही जम जाती है,शायद ये दही इस्लामाबाद से आती है मै इसे"ग्रीन कर्ड" नाम दूंगा ,हमारे वामपंथी भाई इसी "ग्रीन कर्ड फोबिया " से ग्रस्त है ,इनको जब गोधरा में हिन्दू मरते है ,मोपला में हिन्दू मरते है, बंगाल में कांग्रेस और सुहरावर्दी मिल कर हिन्दुओ का क़त्ल करते है ,तब उसे न्यायसंगत बताते है ,
जवाब देंहटाएंइसका जवाब दिया जा सकता था, लेकिन जब कहने वाले को अपने कहे इस झूठ पर इतना भी विश्वास नहीं है कि अपना नाम दे सके (ठीक किसी दंगाई की तरह चेहरा छुपा के पत्थर फेंकने की यह संघी कला अपने आप में उसकी नीयत और हिम्मत को साफ़ कर देती है) तो इस पर सिर्फ दया किया जा सकता है और सावधान रहा जा सकता है.
हटाएंबेनामी जी ...कितना अच्छा होता कि आप ये बाते सामने आकर कहते ..| खैर...कविता की ही बात की जाए , तो इसमें कहाँ यह सब झलकता है , जो आप कह रहे हैं | कविता तो उस मानसिकता और स्थिति की बात कर रही है , जिसमे हमारा यह सभ्य समाज पिस रहा है , घुट रहा है और मारा जा रहा है | क्या आप इन सवालों से बेचैन नहीं होते , कि ये कौन लोग हैं , जो बार बार ऐसे तांडव मचाते रहते हैं | यह कविता तो जहाँ एक मायने में ऐसे लोगों पर सवाल खड़ा करती है , वहीँ दूसरी तरफ सभ्य समाज का आह्वान भी , कि इससे कैसे लड़ा जाए ..| आपने नाहक ही इसमें हिन्दू और मुस्लिम वाली बात छेड़ दी ...| खैर ..आप जैसी मानसिकता वाले लोग ये साधारण बाते समझ ही नहीं सकते , जिसमे लहू के एक होने की बाते की जाती हैं ...| एक क्षण ठहरकर सोचियेगा , कि आप अपने इन तर्कों में कितने दयनीय और हास्यास्पद लगते हैं ...|..खैर ...आपने राय व्यक्त किया , इसके लिए आपका आभार ...
जवाब देंहटाएंयह सच है कि साफ पानी में कमल नहीं खिलते ......इस सच के कारणों की पड़ताल करती हैं ये कवितायेँ
जवाब देंहटाएंएक बेकली में लिखी इस कविता को सिताब दियारा की सबसे अधिक पढ़ी गयी पोस्ट बनाने का शुक्रिया दोस्तों...और कुछ नहीं है मेरे पास लेकिन आपका प्यार और समर्थन है जो ज़िंदा रखता है और बड़े-बड़ों से टकराने की ताक़त देता है..
जवाब देंहटाएंयह नकाबपोश बेनामी फ़ैजाबाद दंगों पर अफसोस नहीं ख़ुशी से गदगद लग रहा है और चाहता है सब उसकी खुशी में शरीक हों ! इसकी समझ से यही राष्ट्रभक्ति है ,हिंदूधर्म है !अन्यथा आप पाकिस्तानी है ! वाह ,क्या अक्ल पाई है साहबजादे ने !
जवाब देंहटाएंयथार्थ को प्रस्तुत करती कविताएँ
जवाब देंहटाएंसही बोलने के लिए बहुत सारे शब्द, वाक्य, पैरे, पुस्तकें नहीं चाहिए..., वर्ग, वाद, विचारधारा, संस्था, संगठन के बैनर नहीं चाहिए; चाहिए सिर्फ कहने की तबीयत। इन कविताओं में सच कहने की तबीयत जब्बर है। इतनी लेट-लतीफी से यहाँ पहुँचा, माफी!
जवाब देंहटाएं''यह किसका लहू है कौन मरा है ?''
जवाब देंहटाएंHamare priye kavi Ashok ji ki ek shandar kavita....
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