रविवार, 29 जुलाई 2012

विमलचन्द्र पाण्डेय का संस्मरण -- तेरहवीं किश्त



विमलचंद्र पाण्डेय 

पिछली किश्त में आपने पढ़ा कि विमलचंद्र पाण्डेय के लिए इलाहाबाद हँसने और रोने के अवसर एक साथ उपलब्द्ध करा रहा था | नौकरी हर तरह से सालने वाली साबित हो रही थी , परिस्थितियां बेचैन कर रही थी , और दूसरी तरफ जीवन में किसी नए का आगमन रोमांच पैदा करने वाला खेल खेल रहा था | लेकिन ..हाय ! वह रोमांच भी अधिक समय तक बरकरार नहीं रह पाया , और जैसा कि अक्सर होता है , उसे भी जमाने की नजर लग गयी ......| और फिर .....

                      तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर विमल चन्द्र पाण्डेय के संस्मरण 
                                                   ई इलाहाब्बाद है भईया की 
                                                            तेरहवीं किश्त 

                                                                       21.

मुखातिब ने जितना लोकतान्त्रिक माहौल हम रचनाकारों को दिया था वैसा मैंने कहीं नहीं देखा था. किसी पाठक या साहित्यप्रेमी के साथ आया उसका दोस्त, जो कहानी के नाम पर प्रेमचंद और कविता के नाम पर सोहन लाल द्विवेदी का नाम भी न जानता हो, भी अपनी प्रतिक्रिया किसी भी रचनाकार की रचना पर बेबाक होकर दे सकता था. इस बात से बहुत लोग अपने दोस्तों परिचितों को यह कह कर बुलाने लगे थे कि आओ यहाँ आने से ज्ञान बढ़ता है, चीज़ों की समझ बढ़ती है और बोलना आ जाता है. जैसे मैंने अर्बेन्द्र को आमंत्रित करना शुरू कर दिया था और उसने एक बार मुरलीधर की एक कहानी ‘शतरंज’ (बाद में कथादेश में प्रकाशित हुई) के पाठ के बाद बोलते हुए कुछ आपत्तियां उठाई थीं. कहानी में शतरंज खेलने वाले दो व्यक्तियों के आपसी द्वंद्व का बेहतरीन चित्रण था. शतरंज एक रूपक की तरह उठता था और ज़िंदगी बन कर कहानी के अर्थ को बेहतरीन तरीके से अभिव्यंजित करता था लेकिन हमारे अर्बेन्द्र को इससे क्या मतलब, आपत्तियां तो आपत्तियां हैं. उसने अपनी चिरपरिचित शैली में शब्दों को चबा कर अपना ऐतराज दर्ज कराया जिसमें वह खुद की ही मिमिक्री करता हुआ लगता था, “कहानी तो ठीक है लेकिन ये दोनों लोग जो शतरंज खेलते हुए मछली खा रहे हैं, वह मुझे ठीक नहीं लगा. एक तो उसी हाथ से शतरंज खेलना और उसी हाथ से मछली खाने से शतरंज की गोटियां गन्दी हो जायेंगीं और दूसरे जो मेरी तरह के लोग हैं, जो मांस मछली नहीं खाते, उन्हें ये वर्णन बुरा लग सकता है.” मुरलीधर भी ये प्रतिक्रिया पाकर स्तब्ध थे. ज़ाहिर है उनका रचनात्मक मन चाहे जितना रचनात्मक हो, इस पहलू पर तो नहीं ही सोच पाया होगा क्योंकि वो मछली खाने वाले आदमी थे और कहानी के कथ्य के बाद बहुत सोचते थे तो शिल्प. इस दृश्य को सम्पूर्णता में खत्म करने के लिए अभी अर्बेन्द्र की तरफ से एक सुझाव आना बाकी था. उसने कहा कि उसकी राय है कि कहानी अच्छी बन सकती है अगर मछली की जगह पर खाने के लिए सोनपापड़ी रख दिया जाए. मुरलीधर को लगा कि कहीं उनकी कहानी ही सोनपापड़ी न बन जाए इसलिए उन्होंने हस्तक्षेप किया और अपनी इस गलीच हरकत के लिए पाठक अर्बेन्द्र से बाकायदा क्षमा मांगी और अगले श्रोता के बोलने की बारी आ गयी.

इस लोकतान्त्रिक माहौल का ही असर था, या उसे नशा कहना ज़्यादा बेहतर होगा कि मैंने भी एक ऐसा काम किया जिसे अवाइड किया जा सकता था. अगले हफ्ते कहानीकार प्रोफ़ेसर अनीता गोपेश का कहानी पाठ था और मैं उस मुखातिब से अनुपस्थित रहने वाला था. मैं लगभग हर दूसरे हफ्ते बनारस अपने घर चला जाता था और आराम से चार पांच दिन रह कर आता था. मुखातिब हर दूसरे रविवार होता था और जिस रविवार मुखातिब नहीं होता था, मैं घर जाकर कुछ वक्त अपने घर वालों और बनारसी दोस्तों के साथ बिताना पसंद करता था. 'घर जाकर आराम करता था' , यह इसलिए नहीं कह सकता कि इलाहाबाद में भी मैं यही काम करता था. इलाहाबाद में मेरा कोई बॉस नहीं था जो मुझसे जवाब सवाल करता और मैं बनारस से भी इलाहाबाद की ख़बरें फोन से निकाल कर लखनऊ ऑफिस मेल कर दिया करता था. मैं अपने घर पर इतना अधिक दिखाई देता था कि मेरे मोहल्ले की एक आंटी जी, जो दूसरों की चिंता में घुलती रहती थीं, ने मोहल्ले में यह बात फैला दी थी कि मैं इलाहाबाद में कोई नौकरी-फौकरी नहीं करता बल्कि मुझे वहाँ इसलिए भेजा गया है ताकि मेरी शादी लग जाए. तिलकहरुओं को बताया जाए कि लड़का इलाहाबाद में पत्रकार है और मोटा दहेज वसूला जाए. उस रविवार मुझे घर पर कुछ काम पड़ गया था और ना चाहते हुए भी मुझे मुखातिब छोड़ कर जाना पड़ा. हालाँकि जाने से पहले मैंने कहानी की फोटोप्रतियां सबको बाँट दी थीं और मेहमानों को आमंत्रित भी कर दिया था. कहानी मैंने खुद भी पढ़ ली थी और वह मुझे इतनी खराब लगी कि मैंने एक नोट लिख कर अर्बेन्द्र को दिया कि कहानी पाठ के बाद मेरी अनुपस्थिति में मेरी प्रतिक्रिया भी पढ़ी जाए.

गोष्ठी में अनीता जी की कहानी सुनने काफी संख्या में लोग आये. कहानी पाठ के बाद श्रोताओं ने प्रतिक्रिया देनी शुरू की कि ‘पहला प्यार’ शब्द को यह कहानी पूरी तरह से खोलती हुई एक अच्छा अनुभव देती है. अपनी प्रतिक्रियाओं में श्रोताओं ने अभिव्यंजना, विडम्बनापूर्ण, सारगर्भित, जीवन से सन्नद्ध, दृष्टि वैविध्यता और अद्भुत जीवंत आदि शब्दों का प्रयोग किया लेकिन मेरे पत्र का मैटर कहता था कि कहानी बहुत कच्ची है और बच्चे के प्रति लड़की का जो नज़रिया है वह कहीं भी खुल कर नहीं आया, लड़की के मन के द्वंद्व को भी लेखिका ठीक से नहीं पकड़ सकी हैं और सिर्फ़ सतही सपाटबयानी से आगे बढ़ती यह कहानी सरिता और मनोरमा जैसी पत्रिकाओं में तो छप सकती है मगर किसी साहित्यिक पत्रिका में नहीं.

इस पत्र के पढ़े जाने के बाद अनीता जी काफ़ी नाराज़ हुईं और मुझे बताया गया कि जब सबकी प्रतिक्रियाओं के बाद लेखिका के बोलने का अवसर आया तो उन्होंने मेरा नाम लेते हुए नाराज़गी से कहा कि उनकी यह कहानी सरिता मुक्ता जैसी पत्रिकाओं में भी छापने लायक नहीं है, यह कचरे में फेंक दिए जाने लायक है. मैं उनकी प्रतिक्रिया सुन कर थोड़ा दुखी भी हुआ कि जब मैं उस दिन अनुपस्थित था तो मुझे ज़बरदस्ती अपनी प्रतिक्रिया लिख कर भेजने की क्या ज़रूरत थी. अनीता जी अगली कई गोष्ठियों में आयीं भी नहीं. लेकिन बाद में जब उन्होंने आना शुरू किया तो मैंने पाया कि वह प्रतिक्रियाएं देते वक्त पहले से बहुत अधिक सजग रहती थीं और एक गोष्ठी के दौरान मुझे उनका एक वक्तव्य स्पष्ट याद है जिसमें उन्होंने मुस्कराते हुए मेरी ओर देख कर कहा था, “मैं काफ़ी समय से लिख रही हूँ लेकिन मुखातिब में आने के बाद मुझे पता चला है कि कहानियाँ लिखना कितना कठिन काम है.” बाद में उनका मुझ पर बहुत स्नेह रहा और जब मेरे कहानी संग्रह ‘डर’ पर गोष्ठी करवाने की योजना हिमांशु जी और मुरलीधर जी ने बनाई तो वह गोष्ठी अनीता जी के घर पर ही रखी गयी. उन्होंने मेरी सारी कहानियाँ बहुत बारीकी से पढ़ी थीं और बाकायदा दो तीन पन्ने के नोट्स के साथ उन्होंने मेरी कहानियों पर अपनी बेबाक राय दी. मैं सोचता था कि रचनात्मक लोगों को इसके पहले बनारस या दिल्ली में मैंने इतने खुले दिल का नहीं पाया.

आकाशवाणी से मेरी कई कहानियाँ प्रसारित हो चुकी थीं और मुरलीधर ने एक शुभचिंतक की तरह मुझे समझाया था कि मैं जब अपनी कहानियाँ रिकॉर्ड करवाने या फिर मिश्रा जी से मिलने आऊँ तो उनसे कतई न मिलूँ क्योंकि मिश्रा जी की नज़रों में वह बहुत पापी टाइप के आदमी हैं, उनके साथ मेरे दिखाई देने का सीधा मतलब होगा कि मैं भी उन्हीं की तरह कम्युनिस्ट यानि विधर्मी हूँ. मैंने इस बात की कोशिश भी की और आकाशवाणी में जाने के बाद का जो नियम था, यानि मुरलीधर जी के साथ बाहर आकर उनके पैसों से चाय सिगरेट पीना और समोसे खाना, उसकी कई बार अनदेखी भी की. लेकिन पानी सिर से ऊपर जाने लगा था और मेरा दम घुटने लगा था. मिश्रा जी एक कहानी के रिकॉर्डिंग से पहले मुझसे साहित्यिक दुनिया की हलचलों पर चर्चा करते, जो मेरे लिए काले पानी की सज़ा जैसा होता. उन्होंने मुझसे पूछा, “आपकी कोई कहानी नया ज्ञानोदय में भी आई है ना ?”

मैंने कहा, “हाँ मिश्रा जी, एक वसुधा में भी आई है.”

“ज्ञानोदय का संपादक कालिया है ना ?”

“जी हाँ.” मैंने कहा.    

“आप जानते हैं उसको ?”

“नहीं, व्यक्तिगत रूप से तो नहीं, एक मुलाकात है और दो बार फोन से बातचीत हुई है.”

“बहुत भ्रष्ट आदमी है भाई.” वह कहते.

मैं पूछूँ या नहीं, वह बताने लगते. इस तरह बातें वह खुद से ही करते थे लेकिन सामने किसी के बैठे रहने का सुख बहुत सरकारी टाइप का होता है जिसका आनंद लेना कुर्सी के उस पार बैठा आदमी अच्छे से जानता है.

“अरे...यहीं आता था आकाशवाणी में. उसकी एक सीनियर थी उस पर लगा डोरे डालने. दफ्तर में इतनी अश्लीलता फैलाई उन लोगों ने कि मैं क्या कहूँ.”

“लेकिन डोरे डालना और डोरे डलवाना तो पारस्परिक क्रिया है, उसमें आखिर कोई तीसरा क्या कर सकता है.” मैंने बात को खत्म करना चाहा.

“अरे ऐसे कैसे, कोई संस्कार ही नहीं. एक तो शराब बहुत पीता था और फिर उस लड़की को, जो उसकी सीनियर थी, क्या तो नाम था....हाँ ममता बरनवाल..उसको फंसाने के कुत्सित प्रयास करने लगा. और आखिर एक दिन कामयाब हो गया, दोनों ने शादी कर ली.”

उनकी घड़ी दशकों पहले उनके हाथ से छूट कर गिरी थी और रुक गई थी. वह उसी समय में जी रहे थे. उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं था कि जिस लड़की के सरनेम के बारे में अग्रवाल या बरनवाल उन्हें याद करना पड़ रहा है, उसने इन दशकों में साहित्य को कैसी-कैसी कालजयी कहानियाँ और उपन्यास दिए हैं और अब उसका सरनेम कालिया हो गया है. उस लड़की के नाम के साथ उसके सरनेम जैसी चीज़ के अलावा और भी बहुत उपलब्धियां लगी हैं जिनका मोल वे बेचारे कभी नहीं समझ सकते क्योंकि उनकी नज़र में दुनिया कि हर लड़की की तरह वो लड़की भी बड़ी मासूम थी जिसके समझदारी भरे फैसले उसके बाप या भाई द्वारा लिए जाने चाहिए थे लेकिन उसने खुद अपनी ज़िंदगी का फैसला ले लिया और वह आज तक इस बात का दुख मना रहे हैं, इस बात की भनक भी कालिया दंपत्ति को नहीं होगी.

मैंने वहाँ जाना कम कर दिया था और जो हमारा अंतिम संवाद था उसके बाद मुझे उनका हिंसक विरोध करते हुए वहाँ से आना चाहिए था लेकिन मैंने खुद को नियंत्रित करके उनका प्रतिवाद किया और यह समझने के बाद, कि उन्हें ब्रह्मा जैसा कोई अविष्कार भी उनकी बात से डिगा नहीं सकता, वहाँ से निकल गया . बाहर आकर मुरलीधर जी के साथ चाय पी और दो समोसे खाए. हाँ.. उसके साथ मांग कर दो बार चटनी भी खायी.

हमारी अंतिम मुलाकात में मिश्रा जी अमरकांत से बहुत नाराज़ थे. नाराज़गी अपने आप में एक पूर्णकालिक यानि फुल टाइम काम है, यह मुझे उनसे ही मिल कर पता चला था. वह नाराज़ थे कि अमरकांत अपने इलाज के लिए सरकार से मदद मांग रहे हैं.

“उसने जितना लिखा उसके बदले में उसे उतना पैसा और नाम-सम्मान मिला. अब सरकार क्यों कराये उसका इलाज ?” उनका मासूम सा सवाल था. मैंने समझाने की कोशिश की.

“कहाँ कुछ पैसा मिलता है लिखने का ? रोयल्टी का सिस्टम बहुत सड़ा हुआ है, हिंदी के लेखक के लिए हालात बहुत खराब हैं मिश्रा जी.”

“अरे पांडे जी, उसने समाज का कौन सा भला किया है कि सरकार उसका इलाज कराये. उसने लिखा और उसे पैसा मिला. सम्मान भी मिला, अब कह रहा है कि उसका इलाज करवाने के लिए पैसा दिया जाए नहीं तो वह अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा देगा, ये क्या बात हुई ?”

“तो समाज का भला करने के लिए उनको क्या कुदाल फावड़े लेकर सड़क पर उतरना चाहिए. अरे लिखने वाला लिखेगा ही तो, हर आदमी अपने काम को ईमानदारी से करे, यही तो वह कर सकता है आखिर समाज के लिए...”

तनख्वाह का मारा मैं उनकी ज़्यादातर बातों को एक कमअक्ल की बातें मानकर अपनी कहानी पास कराने के चक्कर में पड़ा रहता था लेकिन उस दिन मेरे प्रतिवाद सुनकर वह थोड़े चौकन्ने हुए और आगे की ओर झुकते हुए धीरे से मुझसे पूछा, “पाण्डेय जी, कहीं आप जनवादी तो नहीं है ?”

जनवादी शब्द उनके लिए एक ऐसी गाली की तरह था जिसकी परिधि में आने वाले लोगों के लिए उनके मन में कोई जगह नहीं थीं. मैं उठा और मुझे इस बात पर बड़ी शर्म आई कि मैं पिछले कई महीनों से जब आकाशवाणी आता हूँ तो मुरलीधर की बात मानकर उनसे बिना मिले चला जाता हूँ कि उनके साथ देख ना लिया जाऊं. मैं उनके केबिन में गया तो पता चला वो अभी आये नहीं हैं. मैंने उन्हें फोन किया और उन्होंने बताया कि वह निकल रहे हैं और पन्द्रह मिनट में पहुँच जायेंगे. मैंने वहीँ उनका इंतजार किया. उनसे इस घटना का ज़िक्र किया और उनके साथ बाहर चाय पीने गया तो वह अपनी चिरपरिचित हँसी के साथ बोले, “हा हा हा, अगर आप मेरे साथ देख लिए जायेंगे तो आपकी कहानी यहाँ से प्रसारित नहीं होगी.” मैंने भी हँसने में उनकी मिमिक्री करने की कोशिश की लेकिन उनकी तरह नहीं हंस पाया. उस तरह हँसने के लिए मुझे मिश्रा जी जैसे लोगों से दूर रहने की ज़रूरत थी.

हाँ बाद में ये ज़रूर हुआ कि मैंने शेषनाथ को वहाँ अपनी कविताएँ पढ़ने के लिए भेजा और कहा कि वह मेरा नाम न ले वरना उसे वहाँ काम नहीं मिलेगा. वह वहाँ करपात्री जी पर लिखी मिश्रा जी की किताब की चर्चा करे और अपनी कविताएँ रेडियो से प्रसारित किये जाने की इच्छा व्यक्त करे. बाद में उसकी कई कविताएँ आकाशवाणी से प्रसारित हुईं और जिस दिन उसका पहला चेक कैश हुआ, उस दिन हमने घेर कर उससे पार्टी भी ली.

                            २२.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में मैं कई कार्यक्रमों में जाकर बहुत खुश और गौरवान्वित हुआ था . एक दिन अखबार में पढ़ा कि वहाँ पत्रकारिता विभाग (या शायद हिंदी विभाग ही) में महान फ्रेंच फिल्मकार फ्रांकुआ त्रूफो की फ़िल्में दिखाई जायेंगीं. फिल्म स्क्रीनिंग के बाद फिल्मों पर बातचीत भी थी. ऐसा मौका कतई छोड़ने लायक नहीं था और हम वहाँ समय से पहले ही पहुँच गए. मैंने विवेक को त्रूफो के सिनेमा के बारे में कुछ बातें बतायीं और कहा कि उनकी फ़िल्में बड़ी स्क्रीन पर देखना एक अच्छा अनुभव होगा, हमें चलना चाहिए. कार्यक्रम इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर एम सी चट्टोपाध्याय जी के दिमाग की उपज थी जिसे पूना फिल्म संस्थान द्वारा किया जा रहा था. श्री चट्टोपाध्याय के बारे में कहा जाता है कि उनके पास विश्व सिनेमा का वृहद संग्रह है और तिग्मांशु धूलिया को फ़िल्मी कीड़ा काटने के पीछे चट्टोपाध्याय सर की ही भूमिका थी.

त्रूफो की सबसे क्लासिक मानी जाने वाली फिल्म ४०० ब्लोज तो सबसे पहले ही दिखाई गयी और जैसा की उम्मीद थी, वहाँ मौजूद सभी लोगों के साथ हिंदी विभाग की मैडमों और अध्यापकों ने भी फिल्म की तारीफ में कसीदे गढ़े. बच्चे के अभिनय के साथ वक्त की कई समस्याएं उन्हें उसमें नजर आई थीं जिसपर बोलने का मौका वे उसी तरह नहीं चूके जैसे हिंदी के ज़्यादातर साहित्यकार पब्लिक या माईक में से एक भी मिल जाने पर ज्ञान बाँटने का मौका नहीं चूकते. उन्हें देख कर कुछ पुरुषों ने भी अद्वितीय, अद्भुत, सनसनीखेज, हैरतअंगेज जैसे मिडिया अपहृत शब्दों का प्रयोग कर फिल्म की तारीफ की. महिलाओं ने टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में फिल्म के बारे में चर्चा की.

“आई हैड सीन दिस मूवी इन १९९४. एक्सीलेंट.”

“हाँ मैंने भी देख रखा था. बहुत अच्छी फिल्म थी. वह बच्चा जो है उसकी एक्टिंग कमाल थी.”

“व्हाट आ क्लास वर्ल्ड सिनेमा हैज...हमारे यहाँ दर्शक इतने मेच्योर ही नहीं हैं कि वो जीनियस टाइप की चीज़ें बर्दाश्त कर सकें.”

“इसीलिए तो...मैं सिर्फ़ वर्ल्ड सिनेमा ही देखती हूँ...ख़ास तौर पर फ्रेंच और इटैलियन सिनेमा.”

उस दिन तो सब ठीक ही रहा. समस्या अगले दिन की थी जब ‘टू इंग्लिश गर्ल्स’ दिखाई जानी थी. उन्हें लगा कल लड़के की कहानी थी, हो सकता है शायद आज दो लड़कियों की कहानी हो. जब फिल्म शुरू हुई तो भी साइलेंस यानि सन्नाटे की स्थिति देखने लायक थी. लोग फिल्म देखने में इतने डूबे थे (और जो नहीं डूब पा रहे थे वे इसलिए डूबे थे कि कोई ये न समझे कि इन्हें फिल्म में मज़ा नहीं आ रहा) कि एक बार विवेक के वाइब्रेशन मोड पर रखे मोबाइल में मैसेज आ गया तो उसकी बगल में बैठी महिला ने होंठों पर ऊँगली रखते हुए विवेक को इशारा किया, “श्ह्ह्ह्ह्हश.”

विवेक घबरा गया. एक तो वह पहली बार मेरे दबाव पर फ्रेंच सिनेमा देख रहा था और दूसरे आसपास ज़्यादातर लड़कियां और महिलाएं ही थीं और उसके अलावा (ऐसा उसने सोचा) सभी फिल्म का पूरी तरह से आनंद उठाने में लगे थे. उसे लगा कि पूरे कमरे में वह एकमात्र प्राणी है जिसे फिल्म में मजा नहीं आ रहा और वह विश्वस्तरीय फिल्मों लायक नहीं है. उसने दुख के मारे अपना मैसेज भी नहीं पढ़ा और फिर से परदे पर ध्यान लगाने लगा. लेकिन थोड़ी देर में ही दृश्य बदलने लगा. परदे पर जैसे ही लवमेकिंग यानि हिंदी में कहें तो ‘नग्न प्रेमालाप’ के दृश्य आने शुरू हुए, कमरे में हलचल भरने लगी. यह शब्द ‘नग्न प्रेमालाप’ मैंने वहीँ कहीं पीछे से पकड़ा जिसे पीछे से किसी विद्वान ने उछाला था. विवेक ने पलट कर एक बार कहा भी ‘तो आप कपड़े पहन के प्रेमालाप करते हैं का ? शांत रहिये देखने दीजिए.” लेकिन मामला बहुत संगीन था. भारतीय संस्कृति के रेशे उड़ाये जा रहे थे और अश्लीलता का खुला प्रदर्शन हो रहा था. श्लील लोगों, जिन्हें ना तो सिनेमा का ए बी सी डी पता था और ना किसी कला का, भुनभुनाते हुए बाहर जा रहे थे. पिछले दिन जो महिला दर्शकों की मैच्युरिटी का रोना रो रही थीं, वह तीसरे-चौथे नंबर पर बुदबुदाती हुई निकलीं. “हाउ वल्गर.” वहाँ मौजूद ज़्यादातर लोगों के लिए अश्लीलता का मतलब था नग्नता और नग्नता का एक ही अर्थ अश्लीलता. नग्नता को अश्लीलता का ऐसा प्रतीक बना दिया गया है कि उससे लाखगुना अश्लील चीज़ें हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में एकदम सहज तरीके से शामिल हो गयी हैं. श्री चट्टोपाध्याय हैरान थे, उन्हें लग रहा था कि विश्व सिनेमा देखने बैठा हर आदमी इसमें सिर्फ़ सिनेमा ही खोजेगा लेकिन उन्हें नहीं पता था कि वक्त तब तक बदल गया था और स्टेटस सिम्बल में ऐसी-ऐसी चीज़ें शामिल हो चुकी थीं जिन्हें वह सोचने लायक भी नहीं समझते होंगे. जिन लोगों को वहाँ आने की कोई ज़रूरत नहीं थी, वह सिर्फ़ रौब ज़माने विश्व सिनेमा देखने गए थे और जो दर्शक उसकी क़द्र कर पाते वे शायद इसलिए नहीं आये थे कि उन्हें किसी ने (खुद त्रूफो भेजते तो ज़्यादा अच्छा रहता) कार्ड भेज कर नहीं बुलाया. विवेक ने दबी ज़बान में कहा, “अमें, इलाहाबाद के ना एक्को थियेटर वाला देखाय रहा है और ना तुम्हार एक्को साहित्यकार?” ‘तुम्हार साहित्यकार’ जैसे शब्दों में छिपी उसकी टोन मैं पहचानता था. उसके कहने का मतलब था कि तुम साहित्यकार इतने इगोस्टिक होते हो कि कोई नाक रगड़ के न बुलाए तो कहीं जाओगे ही नहीं. तुम लोगों को अच्छी चीज़ों से नहीं मतलब, बस तुम्हारा भौकाल बना रहना चाहिए. ऐसे इलज़ाम वह मुझ पर अक्सर लगा दिया करता था और मैं हिंदी के सभी साहित्यकारों की तरफ से बिना फीस जिरह करता रहता.

उस दिन श्री चट्टोपाध्याय के चेहरे पर हैरानी के उगे वे भाव मैं कभी नहीं भूल पाया.

विवेक मुझे हिंदी के साहित्यकारों का प्रतिनिधि मान लेता और फालतू के सवाल पूछता रहता. जैसे, 

“हिंदी के राईटरवन के किताब कम काहे बिकत है में?”

“तुम लोग जवन भासा में बतियावत हो ओम्मे लिख्त्यो काहे नाहीं ?”

“औरत देख के तुम लोगन के लार काहे चुए लगत है भाई, मुखातिब में ई हाल है तो बड़ी गोस्ठीयन में तो तुम साहित्यकार लोग कुत्ता बन जात होबो.”

“साहित्यकारन के सबसे बड़ी खुसी कवनो कहानी कविता उपन्यास नै ना, तुम लोगन के फ्री के दारू मिल जाए फिर देखौ.”

वह एक आउटसाइडर के तौर पर खूब गंदे गंदे इलज़ाम लगाता और उनके पक्ष में अकाट्य सबूत पेश करता रहता. मैं साहित्यकार होने के नाते से अवैतनिक जिरह करता और अन्त में हार मान कर कह बैठता, “तो का करें हम बे ? जान दे दें ? साले हर साहित्यकार एक्के जइसा नै होत. तुम अमरकांत से मिल्यो कि नै. देख्यो न उनका ? वइसन भी होत है साहित्यकार.”

प्रकारांतर से उस समय का ज़िक्र करता चलूँ जब मैंने नया नया लिखना शुरू किया था और पढ़ने-लिखने का जूनून सोते जागते छाया रहता था (उस समय अच्छे बुरे से अधिक पढ़ने की ही धुन थी). उसी समय मेरी पहली कहानी भी प्रकाशित हुई थी . जिनकी कहानियाँ पढ़ी हों उन्हें साक्षात् देखने का अनुभव अपने देवताओं के साक्षात् दर्शन जैसा था. उन दिनों मुझे लेखकों से मिलने का वैसा ही क्रेज रहता था जैसा मुंबई में हीरो बनने की इच्छा लेकर आये लड़कों को अपने पसंदीदा स्टार्स से मिलने का होता है. मैं उन दिनों दिल्ली में था और कुछ बड़े लेखकों से मिलने का शुरुआती अनुभव मेरा इतना कड़वा, खराब और मूर्तिभंजक रहा कि किसी भी बड़े नाम से मिलने का उत्साह जाता रहा. मेरे दो चार बहुत पसंदीदा लेखकों में एक अमरकांत थे जिनसे मिलने का सपना बरसों पुराना था और इलाहाबाद जाने के बाद ये सौभाग्य भी मिला. लेकिन अपवादों से नियम नहीं बनते और मैंने अमरकांत के कद का कोई लेखक (एकाध अपवादों को छोड़कर) उन जैसा नहीं पाया जिससे एक बार मिलने के बाद दुबारा मिलने की कोई ख़ास वजह बची रहे.

“एकै ठे अमरकांत हैन तुम्हरे पास...बाकी सब लपूझन्ना.” वह फतवा दे देता. मैं अब गालियों पर उतर आता और कहता कि तुम ऐसे चूतिये हो जो सबको खाली गरियाते रहना जानते हो.  

ऐसे ही एक दिन सुबह-सुबह उठ कर टाइम्स ऑफ इंडिया दरवाज़े से उठाया तो पहले पन्ने पर ही एंकर स्टोरी थी ‘वेटरन राईटर अमरकांत वांट्स टू सेल हिज साहित्य एकेडमी अवार्ड’. खबर पीटीआई के हवाले से थी और इलाहाबाद में पीटीआई से खबर जाने का अर्थ था कि नचिकेता जी ने खबर कवर की है लेकिन फिर मेरा ध्यान डेटलाइन पर गया. खबर दिल्ली से छापी गयी थी. मैंने तुरंत पीटीआई में अपनी दोस्त बेदिका को फोन लगाया जो इंटरटेंमेंट देखती थी. उसने बताया कि खबर उसके किसी सहकर्मी ने वहीँ बैठे-बैठे फोन से निकाली है और उसने मुझे लताड़ा भी की ये यूएनआई और मेरे दोनों के लिए डूब मरने वाली बात है. मैंने शर्मिंदा होकर फोन रखा और दम साधे लखनऊ ऑफिस से आने वाले फोन का इंतजार करने लगा जिसमें मुझे धमकी दी जाती कि अगर मैं ऐसे ही महत्वपूर्ण ख़बरें मिस करता रहा तो मुझे उठा कर किसी ऐसी जगह फेंक दिया जायेगा जहाँ की भाषा भी मैं नहीं जानता होऊंगा. ख़बरें छूटने का मुझे कोई ख़ास अफ़सोस भी नहीं हुआ करता था लेकिन इस खबर ने अपने कंटेंट के कारण चिंतित भी किया और खबर मिस हो जाने का दुख भी हुआ. मुझे आश्चर्य हुआ कि आखिर अमरकांत जी ने पिछली मुलाकात में ऐसा कुछ इशारा क्यों नहीं किया. ये मुझे बाद में समझ में आया कि वह अपनी सब्र की और हमारी यानि हिंदी साहित्य की बेशर्मी की सीमा का इम्तिहान ले रहे थे.

विवेक कमरे पर आया और यह खबर मैंने उसे पढ़ने को कहा. वह पढते ही अमरकांत की संततियों खासकर उनके साथ रहने वाले सुपुत्र श्री अरविन्द ‘बिंदु’ को गरियाने लगा. दरअसल उसे कुछ महीनों पहले की एक मुलाकात याद आ गयी थी जब मैं अमरकांत जी से मिलने गया था और वहाँ एकाध सज्जन और आ गए थे. अरविन्द जी मेरी जानकारी के अनुसार किसी एनजीओ के मालिक थे और अपने से बड़े बुजुर्गों के लिए आश्चर्यजनक तरीके से हिकारत भरे शब्द बड़ी आसानी से उच्चारित किया करते थे. उस मुलाकात में मार्कण्डेय जी की कुछ बात उठ गयी क्योंकि मार्कण्डेय जी की तबियत काफ़ी खराब थी और वह अस्पताल में भर्ती थे. मैं एक दिन सत्यकेतु के साथ उनसे मिलने नाजरेथ अस्पताल भी गया था लेकिन उन्होंने बात नहीं की. हालाँकि इसके बाद वह ठीक हुए और मैं शेषनाथ के साथ उनके घर जाकर उनसे मिला जो कि एक अलग और यादगार अनुभव रहा था.

मार्कण्डेय जी की बात उठी और वहाँ आये एक सज्जन ने उनकी कहानियों पर कुछ तल्ख़ सी टिपण्णी की तो मैंने उनकी बात काटते हुए कहा कि मार्कण्डेय की कहानियों पर ठीक से बात तब तक नहीं हो सकती जब तक उन्हें समग्रता में ना पढ़ा गया हो. सज्जन ने भी कुछ कहा लेकिन तब तक बिंदु जी भड़क गए और बोले, “मार्कण्डेय ने ज़िंदगी भर किया क्या है दारू पीने के अलावा?”

अमरकांत जी को बात बुरी लगी और उन्होंने अपने सुपुत्र को इस अशिष्ट तरीके से एक वरिष्ठ लेखक का नाम न लेने के लिए सिर्फ़ एक दो शब्द ही मनाही में कहे थे कि उन्हें भी डांट पड़ गयी, “आप चुप रहिये, आपको कुछ नहीं पता.” अमरकांत जी के चेहरे पर मायूसी छा गयी और मैं वहाँ से उठ कर चला आया. मुझे बिंदु के इस व्यवहार से बहुत धक्का लगा था और मैं कई दिनों तक सामान्य नहीं हो पाया. विवेक तो आगबबूला हो गया था और मैं अगर उसे लेकर वहाँ से तुरंत न निकलता तो वह वहाँ कुछ बवाल भी मचा सकता था. निकलते हुए उसने कहा, “विमल भाई, अइसन लोगन के लड़कन कइसन निकल जातेन. इ सरवा अभिषेक बच्चन है....” उसने और भी कुछ कहा था जो मैं याद नहीं करना चाहता.

इस घटना के बाद इलाहाबाद निवासी उर्दू के एक वरिष्ठ कथाकार और मेरे शुभचिंतक ने मुझे बताया कि बिंदु जी ने भी कहानियाँ लिखी हैं और उनकी एक कहानी ‘रुमाल’ बहुप्रशंसित हुई है. मैं चाहूँ तो वह कहानी मुझे दे सकते हैं. मैंने साफ इनकार किया और कहा कि हो सकता है वह कहानी अच्छी हो लेकिन मुझे कभी अच्छी नहीं लग सकती. वह हँसे और उन्होंने कहकहों के बीच कहा, “अरे वो क्या अच्छी कहानियाँ लिखेगा. उसकी एक कहानी का अन्त मैं तुम्हें सुनाऊंगा तो तुम यहीं कॉफी हाउस के सामने ही हँसते-हँसते गिर पड़ोगे.”

मैं जिज्ञासु हुआ कि ऐसा क्या लिखा उन्होंने अपनी कहानी में. उन्होंने बताया कि बिंदु जी की एक कहानी का अन्त एक मौत से होता है और मौत के बाद उस किरदार की लाश जला दी जाती है. अंतिम संस्कार के लिए उन्होंने ‘सुपुर्द-ए-खाक’ का प्रयोग किया था और कहानी की अंतिम पंक्ति थी, “उनके सुपुर्द-ए-खाक से धुआँ उठ रहा था.”

मैं पहले तो आश्चर्य में रहा लेकिन थोड़ी देर में ही ज़ोरों से हँसने लगा. वो भी हँसने लगे और हँसते हुए मेरा कंधा थपथपाया जिसका मतलब था, कि जाहिलों की बातों को दिल से नहीं लगाते. जाहिर है , मैंने लगाया भी नहीं ....


                                                                                                                क्रमशः....

                                                                                              प्रत्येक रविवार को नयी किश्त ......




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विमल चन्द्र पाण्डेय 
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बुधवार, 25 जुलाई 2012

केदारनाथ अग्रवाल को याद करते हुए ...केशव तिवारी



केदारनाथ अग्रवाल 

प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर हिंदी कविता के त्रयी में से एक और वटवृक्ष माने जाने वाले बाबू केदार नाथ अग्रवाल पर लिखा युवा कवि केशव तिवारी का संस्मरण | यह संस्मरण साहित्य अकादमी द्वारा इलाहाबाद में 22 - 23 जुलाई 2012 को आयोजित कार्यशाला में दिए गए उनके वक्तव्य पर आधारित है | 



                            पक्षी जो एक अभी-अभी उड़ा

इसके पहले की मैं अपना यह संस्मरण आरम्भ करू , मुझे एक घटना याद आती है | एक बार जब मैं इलाहाबाद से बांदा अपने घर जाने के लिए निकला था , तभी शिवकुमार सहाय जी को संयोगवश पी.सी.ओ. से फोन मिलाया | उन्होंने पूछा 'तुम कहाँ हो ' | मैंने कहा , कि मैं घर जाने के लिए निकल रहा हूँ ..| उन्होंने कहा , वही रूक जाओ , मैं वहीँ आ रहा हूँ | वे आये , और मुझे अपने घर ले गए ...वहां  बाबा नागर्जुन ठहरे हुए थे | वे मुझे कुछ गुमसुम से बैठे  थे ...| फिर मेरा परिचय पूछा , मैंने कहा " बांदा से आया हूँ , नाम केशव तिवारी है , और कवितायें लिखता हूँ | " वे चौकन्ने हुए ..."तो सुनाओ अपनी कवितायेँ , क्या डायरी लाये हो ?" मैंने कहा 'कवितायें मुझे याद रहती हैं , और मैं डायरी लेकर नहीं चलता | " मैंने उन्हें अपनी कुछ कवितायें सुनाईं , फिर उन्होंने कहा "देखो बांदा में कविता का बटवृक्ष रहता है , जिसकी छाया सम्पूर्ण हिंदी जगत पर पड़ती है , उससे दूर ही रह कर कविता लिखना " फिर बोले , "ये लोग मुझे दिल्ली ले जाना चाहते हैं , तुम मुझे वाचस्पति के यहाँ पहुंचा दो , या फिर मुझे बांदा ले चलो "  | जब रात के साढ़े ग्यारह बजे , तब वे कहने लगे , "उठो कपडे पहनों , मुझे लोकनाथ ले चलो , मैं वहां  रसगुल्ले खाऊंगा और तुम वहां  छोकरी देखना "| 


बाबा नागार्जुन द्वारा घोषित ऐसे वटवृक्ष केदार जी से मेरी मुलाकात 1991 के बारिश के दिनों में हुयी |ये वह समय था जब क्रेमलिन से लाल झंडा उतर रहा था और केदार जी ने मुझे मोरिस कार्मफोर्थ के तीनो वैल्यूम पढने को दिये और व्यवस्था गलत हो सकती है ऐतिहासिक भौतिक द्वन्द वाद नही | इसे पढो और मुझसे बात करो। यूं तो मार्क्सवाद से एक रूमानी लगाव विद्यार्थी काल से ही रहा पर मै अब गंभीर तरह से दिक्षित हो रहा था। यह वक्त तमाम शंकाओं निराशाओं और मार्क्सवाद पर हमले का था। मैं साढ़े तीन बजे से देर शाम तक उनके  पास बैठता और चर्चायें करता, धीरे-धीरे अपनी बन रही समझ में उन्हें भी देखने परखने लगा। केदार जी को पूरी तरह तब नही समझा जा सकता, जब तक आप मार्क्सवाद को नहीं समझते, उनका  पूरा सीराजा, सोच जीवन , उसी पर टिका था। एक मनुष्य के रूप में केदार जी बहुआयामी प्रवृत्ति के थे और एक महाजनी परिवार में जन्म लेने के बावजूद उससे उनका कोई जुड़ाव नहीं हो पाया। वजय यह थी कि पिता वैद्य थे तो बचपन उनके साथ कटनी, जबलपुर में बीता। कानपुर में पढ़े वकालत और बांदा में चाचा के अंडर में वकीली शुरू की, उनके न रहने पर उन्होंने लिखा-‘नेह की छतरी फटी/आलोक बिखरा’ मतलब वो खुद अपने बूते दुनिया को देखने को कितना बेताब थे, इससे साफ होता है।

केदार जी से मिलकर यह बार-बार लगता था कि जीवन के उनके कुछ बंधे मापदंड हैं, उससे डिगना उन्हें मंजूर नहीं था। आपकी सब सुन लेंगे , मुंह पर प्रतिकार भी नहीं करेंगे, पर बाद में ‘ अव्वल आय ’ कहने से भी नहीं चूकंेगे। उन दिनांे तक उन्होंने लगभग बाहर निकलना बंद कर दिया था। शाम की बैठक में आने वाले लोगों में पंडित राम संजीवन एहसान, आवारा कृष्ण मुरारी पहारिया, आर. पी. राय, रामविशाल सिंह, नरेन्द्र थे। केदार जी के सरोकार कविता तक ही नहीं होते, शहर देश में क्या हो रहा है, कचहरी में क्या हो रहा है, नगरों की साहित्यिक हलचलें कैसी हैं। मैं सोचता रहता यह कवि इतनी ऊंचाई पर पहुुंच कर कैसे इस उम्र में एक बच्चे की सी उत्सुकता के साथ जी रहा है, मार्क्सवाद को शायद इसी तरह से उन्होंने जीवन में ग्रहण किया था, परिवेश से लगाव और अपने समय से एक द्वंद्वात्मक रिश्ता कैसे रखा जाए, केदार उसके स्कूल थे। केदार जी से पहली बार मिलकर आपको कभी न लगता कि आप एक शिखर पुरूष से मिल रहे हैं। हो सकता आपको उनके अंदर नागार्जुन सा चुम्बकत्व एक फक्कड़ अंदाज या त्रिलोचन सा पांडित्य और किस्सा गो न मिले, पहली-पहली बार यह भी लगे, उनके कमरे की किताबें देखकर, कि आप एक पढ़े लिखे वकील, कवि से मिल रहे हैं। जो मितभाषी हालचाल पूछ कर चलता करता था। यह था भी, पर आप में कुछ झलक जाए तो फिर आने का न्योता देना नहीं भूलते थे। वो अक्सर एकांत क्षणों में निराला जी के बांदा आने कर जिक्र करते, जवानी में साइकिल से कानपुर से लखनऊ उनसे मिलने जाने का भी , बाबा या त्रिलोचन जी के बांदा आने का।

केदार जी में एक बात जो विशेष थी कि किसी से बात करते हुऐ तुरंत सतर्क हो जाते, मुझे लगता है, उनके जीवन व्यवहार में उनका वकील साथ-साथ ही रहता था केदार के कवि निर्माण में उन छोटी-छोटी बातों का समावेश था, जिसको अक्सर लोग नजर अंदाज कर जाते हैं, वो केवल उप केन को देखकर ही नहीं लौट आते थे, उसके कगार, किनारे पत्थर फसल, मछुूआरे, ये सब मिलकर उनके मन को रमते थे, अक्सर पूंछते नदी हो जाते हो किनारे वाला मन्दिर इस बाढ़ में बचा कि ढह गया, नाव घाट में सुना है, अब मुर्दे फेंके जाते हैं। इन लोगों ने नदी गंदी कर दी है। उम्र में इस कवि के पास इतना धड़कता ह्नदय इतना गहरा लगाव अचंभित कर देने वाला था।

केदार जी को सदा इस बात का मलाल रहा कि नामवरसिंह जैसे आलोचकों ने उनकी गहरी उपेक्षा की और उनको मेरे लेखन में केवल ‘लाल चुनरिया में लहराते अंग रहेंगे’ ही दिखा, हालांकि अंत तक  वो उस कविता के पक्ष में रहेे। उनका कहना था हम लोगों को ठेल ठाल कर पीछे करने और मुक्तिबोध को आगे लाने की साजिश थी, यह एक तरह की । और मुक्तिबोध को लेकर मुझसे कई बार असहज हुये और डांट तक चुके थे। मुझे लगता है, केदार जी ने अपने लोक से जुड़कर जहां तक चेतना का विस्तार कर लिया था, साधारण अभिजात आलोचना वहां तक पहुंच भी नहीं सकती । केदार जी एक बात बार-बार कहते, केशव मुझे कचहरी ने मनुष्य बनाया और यह वकील उनके साथ अंत तक रहा भी। एक ईमानदार वकील, जिसने बांदा जैसे अपराध बहुल जनपद में डी.जी.सी. क्रिमिनल रह कर चार आने हराम के हाथ से नहीं छुए, किसी बेईमान की चाय भी नहीं छुई। केदार जी ने जिन मापदंडों को गढ़ा था, उसको पूरे जीवन जिया, उनका मनुष्य पर गहरा भरोसा था। उनके सेवक बुद्धू नन्ना, जो दरवाजे पर ही जीने तक सोये और केदार जी के काफी पहले चले गए, एक बार अजय तिवारी से बाबू जी की बात हो रही थी, मैं पेशाब के लिए बाहर निकला तो नन्ना ने कहा, ‘‘ तिवारी तुम्हु लिखथियु मैं तो लंठ हो या हरी पत्ती, पीली पत्ती, अजय तिवारी को बता रहे हैं , मोहूं का समझावा । ’’ मैं तेजी से हंस पड़ा बाबू जी बोले बुद्धू ऐसे ही हैं , पढ़े-लिखे नहीं, पर निहायत ईमानदार। मैंने कहा बिना पढ़े ही ठीक हैं,  वो भी हंस पड़े। मुझे यहां पर एक उपनाम रशियन लेखक स्पिरिकिन का एक कथन याद आता है- ‘‘ मनुष्य के कल्चर लेबल को समझने के लिए दो चीजे हैं। पहली वह अपने संबंधों में कितना साफ है। दूसरा उसका प्रकृति से क्या रिश्ता है। ‘‘ इस तरह से देखा जाये तो बाबू जी और उनके प्रकाशक शिवकुमार सहाय के रिश्ते को याद करना चाहिए, रामविलास जी से उनके रिश्ते का स्तर मित्रता का था।

सहाय साहब और परिमल प्रकाशन और बाबू जी एक-दूसरे के पर्याय थे, कहते केशव जब किसी ने नहीं छापा, सहाय ने छापा, अब सब चक्कर लगाते हैं। मैने कह दिया सहाय ही छापेंगे, कभी एक पैसे की बात नहीं, कभी ब्लैक एंड व्हाइट पोर्टेबल टीवी खरीद गए वो भी जबरदस्ती, बस जन्मदिन के आयोजन में इलाहाबाद से लोगों को अपने खर्चे पर लाना, सम्मिलित होना । वो भी सहाय के बाद उन लेखकों को क्या हो गया, यह हिंदी जगत की अकथ कथा है। बार-बार सहाय जी पर आरोप लगता केदार का साहित्य फैला नहीं पा रहे हैं, पर केदार जी को इसका कोई मलाल नहीं रहा। कविता कैसे किसी कवि को बड़ा मनुष्य बनाती है। केदार जी इसके उदाहरण थे, एक बार कहीं जमीन के झगड़े में अदालत से भेजे गये, तो सामंतों ने सर पर लाठी मारी सिर फट गया तो भाग कर जान बचाई, बड़ी कृतज्ञता से कहते ‘एक महिला ने सिर पर कपड़ा बांधा’ और यह भी कि ‘ अभी ये यही करेंगे, जब तक चेतना इन तक नहंी पहुंचती। ’ ये थे केदार ।

एक बात जो वह बड़ी ताकत से कहते कि निराला की ‘ राम की शक्ति पूजा’ में निराला जब शक्ति का आह्नान करते हैं , उससे सहमत नहीं हूं। बात डाइलॉग से निपटनी चाहिए मारकाट से नहीं । वो साफ कहते हैं, मैं झंडा लेकर नहीं चल सकता मैं पूछ बैठता ये ‘काटो, काटो, करबी काटो। हिंसा और अहिंसा क्या है तो आपने ही लिखा था’ तो जवाब आता कि वह एक वक्त था। बांदा की स्थानीय राजनीति से पूरी तरह वाकिफ कौन कवि क्या लिखता है और उनके बारे में क्या दुप्रचार करता है। जानते हुए कभी विचलित नहीं दिखते। डॉ0 रणजीत, जिनसे उनकी बाद में गहरी असहमति हुई , आना-जाना बंद हुआ, पर उनकी स्कूटर उन्हीं के अहाते में खड़ी होती । विधवा बेटी और उसके उद्दंड बेटे से काफी चिंतित रहते। कुछ दिनों के लिए मद्रास जाते तो पत्र आते नवदुर्गा है, इन दिनों कहां की मूर्ति सबसे अच्छी है, मैं स्वयं देखने ना जाने की बात कहता तो कहते एकाध दिन देख आओ, केन के हाल पूछते। अपने बांदा के शिष्य श्री कृष्ण मुरारी पहारिया से काफी आहत रहे, कहते रहे इतनी ऊर्जा के बाद भी यह बरबाद हो गया। अगर कोई सरकारी बड़ा अफसर कभी मिलने आ जाता तो हां-हूं करके टरका देते कहते ये बेईमान है, इन्हें जानता हूं। फिर वह उनके घर की ओर मुंह करता ।

डॉ0 अशोक त्रिपाठी से उनका पुत्रवत स्नेह रहा और उनके हर जन्मदिन में वो आते और कार्यक्रम का संचालन करते। अजय तिवारी की आलोचना से उनकी गहरी सहमति बनती । रामविलास जी के न रहने के बाद एक बहुत उदास शाम में जो आज तक मेरे जेहन में है , उन्होने कहा , ‘ केशव रामविलास हिंदी का बड़ा आदमी था, केवल मित्र नहंी था, बड़ा मनुष्य था। सब खत्म हो गया । ’ एक बात केदार जी राजनीतिक कविताओं को पढ़ कर और उनसे मिलकर जो उठती थी कि वो प्रकट जगत में उससे दूर ही रहते, ये बात सामाजिक भूमिका की एक सीमा बना रखी थी। कभी-कभी कह उठते ‘तार सप्तक’ में मुझे भी निमंत्रण आया । मैने कोई जवाब नहंीं दिया एक कविता का ‘ऑंखों देखा ’ जिक्र करते बताते इलाहाबाद रेडियो स्टेशन कविता पढ़ने जा रहा था, सुमित्रानंदन पंत को संचालित करना था, घबरा रहा था, नामी लोग आ रहें थे। पैंसेंजर से निकला ‘ बहिलपुखा ’ स्टेशन में शाम झुमुक रही थी तो पलाश के पेड़ को देखकर रास्ते में यह कविता लिखी और बहुत तारीफ हुई। अगर कहीं कोई उन पर एक लाइन लिख दे, बार-बार कहते ‘ यार ’ क्या लिखा है, बताओ, अगर कुछ दिन न जाऊं रामस्वरूप हाजिर बाबू जी पूंछ रहे थे और अगर बहाना मारा तो बोले , रामविशाल कह रहे थे चौराहे पर सिगरेट फूंक रहे थे, मुझसे उड़ते हो।

एक फिर अवसाद के क्षणों में उन्होंने कहा, केशव डटे रहो, जो  करो उस पर विश्वास रखो, मैने यही किया है। सब चमकदमक छोड़, बांदा में रहकर केवल ईमानदारी से कविता को साधा है। कोई इसे कविता माने या न मानें । एक बात आवश्य थी, बाबू जी ने एक बार आपके बारे में जो अवधारणा बना ली उसे बदलते नहीं थे। कभी-कभी मुझे यह असहज जरूर करता था। इससे उनके कुछ अति निकट लोग उनसे कहे भी, पर उन्होंने इसकी परवाह नहीं की । मैं कहता तो चुप हो जाते कुछ जवाब न देते । आगे चलकर उनकी बाबा और त्रिलोचन जी से कुछ असहमतियां हुई।

एक वाक्या याद आता है, एक बार हम बाबू जी के साथ इलाहाबाद उन पर आयोजित एक कार्यक्रम में गये, जिसमें श्री अमरकांत , शेखर जोशी, रवीन्द्र कालिया, दूधनाथ सिंह, अजीत पुष्कल तथा इलाहाबाद के युवा  साहित्यकार, बाहर से अजय तिवारी, अशोक त्रिपाठी थे। कुछ लोगों ने प्रश्न उठाया कि केदार निराला से बड़े कवि नहीं हैं । मुझे जाकर इसका प्रतिकार करना पड़ा कि यह प्रवृत्ति ही हिंदी में ठीक नहीं है, इन सब ने अपना समय में कैसे दखल दी , ये देखना चाहिए । केदार जी काफी प्रसन्न दिखे, फिर हम अमृत राय जी के यहां गये, वहां केदार जी ने कहा-‘चम्पा काले अक्षर नहीं चीह्नती है में क्या है। ’ प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा, उस नामुराद की वही कविता और तुम्हारी ‘ गर्रा नाला’ कविता ही सबसे ज्यादा भाती है। मुझे, उन दिनों बाबू जी, शास्त्री जी के किसी बयान से खफा थे और खुलकर बोले, ये थी वह दृढ़ता , जहां लोग सोंट खीच जाते हैं । केदार डट जाते थे । ढंकी खुली असहमति उनकी हरदम त्रिलोचन जी की कविता को लेकर बनी रही । केदार जी पैसे को लेकर काफी सतर्क रहते। पाई-पाई का हिसाद डायरी में लिखते, कहते कवि को रोटी का इंतजाम सबसे पहले करना चाहिए, अपव्यय नहीं । मुझे कुछ अजीब लगता तो कहते बाद में समझोगे। केदार जी के बाद के दिनों में अचानक लगा जैसे वो स्मृतिलोक में चले गए, उसी दौरान उन्होने भगवता, बागी घोड़ा तथा अन्य कविताएं लिखीं, जिनका पहला पाठक भी मैं रहा । डायरी पकड़ा देते पढ़ो, और तख्त पर पालथी मारकर मुग्ध होकर बैठ जाते। मुझसे मेरी राय मांगते, मैं हिचकिचाता तो बोलते, नये आदमी हो नई नजर से देखो।

केदार जी से  मिलकर यह बार-बार महसूस होता इस व्यक्ति को खंड-खं डमें नहीं समझा जा सकता है, इसने अपने व्यक्ति के कई-कई खाने नहीं बना रखे हैं, अपने लिखे के प्रति इतना विश्वास दुर्लभ है। कई-कई बार कह उठते, केशव देखो ये बेला को इतने दिनों से पानी दे रहा हूं। फूलता नहीं । मैं उनका चेहरा देखता रह जाता , क्या-क्या चिंतायें हैं इस कवि की। एक तरफ सामंतों पर बज्र चलाता है, एक तरफ फूल के न खिलने से उदास है। आखिरी वक्त जब उनसे मिला तो डॉ0 भार्गव उनके पैर में प्लास्टर बांध रहे थे, उस पीड़ा में उन्होंने मेरी ओर देखा कहां रहे यार, देखो मेरा पैर टूट गया है। फिर लखनऊ में उनके न रहने की सूचना मिली। सब याद करते उनकी एक कविता जेहन में रह-रह बोलती है-

केशव तिवारी  
‘‘पक्षी जो अभी-अभी उड़ा/और बोलती लकीर सा अभी/नील व्योम वक्ष में समा
गया/ गीत वहां गाने के लिये गया/गायेगा/और लौट आयेगा/पक्षी जो एक अभी-अभी उड़ा।’’


                                      


 केशव तिवारी हिंदी के सुपरिचित कवि हैं 


नाम               - केशव तिवारी
शिक्षा              -  बी0काम0 एम0बी00
जन्म              -   अवध के एक ग्राम जोखू का पुरवा में
प्रकाशन            -    दो कविता संग्रह प्रकाशित  1... “इस मिट्टी से बना”
                                                     2... “आसान नहीं विदा कहना”
सम्प्रति                  -     हिंदुस्तान यू0नी0 लीवर लि0 में कार्यरत्

                  -     कविता के लिये सूत्र सम्मान:      
                  -    सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित |
                  -   कुछ कविताओं का मलयालमबंगलामराठीअंग्रेजी में अनुवाद
संपर्क              -  द्वारा – पाण्डेय जनरल स्टोर , कचहरी चौक , बांदा (उ.प्र.)
मोबाइल न.         – 09918128631 

रविवार, 22 जुलाई 2012

विमल चन्द्र पाण्डेय का संस्मरण -- बारहवीं किश्त


                             
विमलचंद्र पाण्डेय 
                                                                             

पिछली किश्तों में आपने पढ़ा कि एक तरफ जहाँ इलाहाबाद में 'मुखातिब' की गोष्ठियां अपने इलाहाबादी ठाट-बाट से जारी हैं , जिसमे श्रोता और लेखक दोनों के पास यह सुविधा रहती है , कि  वे एक दूसरे की खाट कभी भी खड़ी कर सकते हैं , वहीँ यू.एन.आई.की नौकरी में विमलचन्द्र पाण्डेय घिसटते हुए ही सही , लेकिन कन्फर्मेशन पा जाते हैं ...| इस संस्मरण में वे जिस तरह से पाठकों को हंसाते हंसाते रुलाने लगते हैं , वह कमाल का है | उनके और उनसे जुड़े पात्रों की कारगुजारियां हमें भीतर तक मथ देती हैं , और यह सोचने के लिए बाध्य कर देती हैं , कि यह व्यवस्था हमें किस मुकाम पर लेकर जा रही है | इस अंक में विमल अपनी  इस चिर-परिचित शैली के साथ -साथ अपने प्यार के दिनों को याद करते हुए अपने दिल के दरवाजे की एक और खिड़की पाठकों के सामने खोल रहे  हैं ...

     
     तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर विमलचंद्र पाण्डेय के संस्मरण 
                                                          ई इलाहाब्बाद है भईया की
                                                                     बारहवीं किश्त 


19-
इलाहाबाद की हवा थोड़ी बदलने लगी थी. शेषनाथ जैसे दोस्त इलाहाबाद छोड़ने की योजनाएं बनाने लगे थे और ये घटनाएँ मेरा दिल बैठाने वाली थीं. मैं उससे अक्सर बहस करने लगता कि रहने, जीने या मरने किसी भी लिहाज़ से इलाहाबाद से बेहतर कोई जगह नहीं है लेकिन वह कहता कि इलाहाबाद आपको धीरे-धीरे खत्म कर देता है. हम दोनों अपने-अपने तर्कों के लिए दलीलें देते और मैच ड्रा कराकर अपनी-अपनी किताबें पढ़ने लगते. शेषनाथ इलाहाबाद छोड़ कर चला जायेगा, ये मेरे मानने के लिए थोड़ी कठिन बात थी. मैं दरअसल स्वार्थी था और मुझे हमेशा कोई न कोई ऐसा दोस्त चाहिए होता था जो समझ के स्तर पर मेरे आसपास हो जिसके साथ मैं हंस बोल सकूँ. शेषनाथ का अपने भईया कम रूममेट (ज़्यादा) से किसी बात पर मनमुटाव हो गया था और वह आकर दो तीन महीने मेरे साथ रहा था जिससे मुझे अपनी अस्त-व्यस्त ज़िंदगी के अनुशासित होने की कुछ झलकियाँ मिली थीं. मेरे कमरे पर आते वक्त वह पांच छह बोरियां किताबें लाया था जिसमें से आधी उसके कोर्स की थीं तो आधी साहित्यिक पत्रिकाएं और कहानी कविता वगैरह. वह बहुत धार्मिक था और साहित्यिक लोगों के बीच उठते-बैठते उसके धार्मिक होने को कोई पकड़ न ले, इसलिए वह किसी अंजानी प्रक्रिया के तहत अपने धार्मिकपने को आध्यात्मिक होने में बदल चुका था. स्वास्थ्य, साहित्य के साथ उसकी प्राथमिकताओं में था और ये देखकर मुझे दुख होता था कि स्वास्थ्य नाम की जिस चीज़ को मैंने कभी सोचने लायक विषय ही नहीं समझा था, वह उसके यहाँ इतनी बड़ी चीज थी. उसकी किताबों में आरोग्यधाम और निरोगधाम नाम की भी बहुत सारी पत्रिकाएं थीं जिनमे वीर्य रक्षण और वीर्य गाढ़ा करने के तरीकों को लाल या नीली स्याही से अंडरलाईन किया गया था. मेरा स्वास्थ्य मेरे चेहरे से ना झलकने के बावजूद ठीक रहता था और विभिन्न स्रोतों से मेरी अद्यतन जानकारी के अनुसार मेरा वीर्य भी ठीकठाक था , इसलिए मैं ऐसी पत्रिकाओं में कोई रूचि नहीं लिया करता था लेकिन वो पत्रिकाएं मैंने इसलिए पढ़ कर देखीं क्योंकि उस समय मैं ‘एक शून्य शाश्वत’ नाम की कहानी लिखने में खोया हुआ था जो अध्यात्मिक बाबाओं के बहाने इस कारोबार पर टिपण्णी करती थी. मैंने पत्रिकाएं पलट कर देखीं और मुझे उनसे अपनी कहानी में काफ़ी मदद भी मिली. मैंने शेषनाथ से इस बाबत जानना चाहा तो उसने मासूमियत से बताया कि इसी साल उसका गौना होना है इसलिए वह हर तरह से तैयार रहना चाहता है. हालाँकि बाद में उसने खुद इन लेखों को अंडरलाइन करने से साफ़ इनकार कर दिया और बताया कि ये सब काम भईया किया करते थे. मैंने उसे गौने के लिए शुभकामनाएं दीं और गौर किया तो पाया कि रात को सोते वक्त वह अपना अंडरवियर उतार कर फिर से हाफ पैंट पहन लिया करता था. कारण पूछने पर उसने बताया कि रात को अंडरवियर पहन कर सोने पर शुक्राणु मर जाते हैं. मुझे इस नवीनतम जानकारी से बहुत आनंद मिला और मौका मिलते ही मैंने यह जानकारी विवेक को पास कर दी. विवेक ने शेषनाथ को कहा कि उन्हें स्पर्म बैंक में बात करनी चाहिए, वहाँ उन जैसे डेडिकेटेड लोगों को बहुत ज़रूरत है लेकिन शेषनाथ ने इसे गंभीरता से नहीं लिया. जिसे जब-जब जो-जो बात गंभीरता से लेनी चाहिए थी वो गंभीरता से नहीं ले रहा था. मैं मुंबई निकलने का मूड बना रहा था लेकिन उस अनजान शहर का डर हमेशा मुझे सताता रहता था. एक तो बचपन से देखी गयी मुम्बईया फिल्मों का डर था जिनमे किसी हिंदी भाषी क्षेत्र से गए आदमी का सामान स्टेशन पर ही चोरी हो जाया करता था और दूसरे उस शहर के महंगे होने का डर मुझे कोई भी कदम उठाने से डरा रहा था. अर्बेन्द्र हालाँकि यूनाइटेड भारत की पत्रकारिता से तंग आ गया था और इलाहाबाद छोड़ कर मुंबई अपने भईया के पास जाने का मन बना रहा था ,जो मुंबई में प्रोपर्टी डीलिंग का काम करते थे. मैंने साहित्य पृष्ठ के लिए साहित्यिक हस्तियों के साक्षात्कार लेने में उसकी मदद की थी और उस पेज पर आधे पेज पर जाने वाली उसकी बाईलाइनों ने उसके सहकर्मियों को उसका दुश्मन बना दिया था. दुनिया बहुत असुरक्षित होती जा रही थी और पत्रकारिता की दुनिया इसका प्रतिनिधित्व कर रही थी. उस पृष्ठ के लिए अर्बेन्द्र ने नीलाभ, (स्वर्गीय) अमरनाथ श्रीवास्तव, अमरकांत और हरिश्चंद पाण्डेय समेत कई साहित्यिक हस्तियों के साक्षात्कार लिए थे. हालाँकि ये अखबार का स्तर था कि नवगीतकार स्वर्गीय अमरनाथ श्रीवास्तव के साक्षात्कार में उनकी तस्वीर की जगह महेंद्र राजा जैन की फोटो लगायी गयी थी. इन अख़बारों को ऐसी छोटी गलतियों का कोई ख़ास पछतावा नहीं हुआ करता था. अर्बेन्द्र बहुत जल्दी किसी पर भी विश्वास कर लेने वाला आदमी था और यूनाइटेड भारत में जिस सीनियर राजीव चंदेल के वह पैर छुआ करता था वह कुछ सालों बाद एक लड़की का नौकरी देने के बहाने यौन शोषण करते और उसकी वीडियो बनाते हुए पकड़े गए. मुंबई आने के बाद भी, जब कितनी ही जगहों पर उसका कितना ही पैसा मार लिया गया, और वह इस आदत से एडजस्ट करना अभी सीख ही रहा है.

मैं कुछ नया करने की छटपटाहट में एक दिन अर्बेन्द्र के ही सौजन्य से उसके एक दोस्त अनिरुद्ध से मिला. खांटी इलाहाबादी का अर्थ क्या होता है, अनिरुद्ध से मिलने के बाद मुझे फिर कभी किसी से पूछने की ज़रूरत नहीं पड़ी. हमारी पहली मुलाकात अर्बेन्द्र के कमरे पर हुई थी जहाँ उसने बताया कि उसका ‘फाईट फॉर राईट’ नाम का एक एनजीओ है जिसके झंडे तले वह राईट बातों के पक्ष में फाईट करता रहता है. हम भी ऐसी ही फाईट करना चाहते थे और कहने की ज़रूरत नहीं कि मैं और विवेक उससे बहुत प्रभावित हुए. पहली ही मुलाकात में उसने अपनी योजनाओं से हमें जोश में भर दिया. वह हाई कोर्ट में प्रेक्टिस करता था और तब तक मैं ये नहीं समझ पाता था कि आखिर ये काले कोट वाले प्रेक्टिस किस बात की करते हैं. इस लिहाज से अनिरुद्ध ने मुझे न्याय व्यवस्था की झलकियाँ दिखाने के साथ इससे जुड़े कई भ्रम भी तोड़े. उसकी योजना थी कि ‘फाईट फॉर राईट’ के ज़रिये वह एक यूथ कन्वेंशन कराएगा. यूथ कन्वेंशन का नाम लेते ही उसके चेहरे पर एक चमक आ जाती थी और वह सीधा होकर बैठ जाता था. इलाहाबाद में मैंने हर गली में दो चार एनजीओ के बोर्ड तो देखे ही थे और कई बार मैं सोच में पड़ जाता था कि वहाँ मंदिर ज़्यादा हैं या फिर एनजीओ. अनिरुद्ध की यूथ कन्वेंशन की अवधारणा स्पष्ट थी. इसे लेकर वह इतना उत्साहित था कि विवेक अक्सर मुझसे कहा करता था कि अगर अनिरुद्ध मर जाए और चिता पर इसकी लाश रखने के बाद भी उसके कान में अगर कोई धीरे से ‘यूथ कन्वेंशन’ फुसफुसा दे तो वह जिंदा हो जायेगा. उसके पास इसे लेकर इतने ज़्यादा प्लान्स थे कि वह समझ नहीं पाता था कि उनमे से कौन सबसे अच्छा है. फिर भी वह उनमे से कई योजनाओं को मूर्त रूप देने का इच्छुक था और उसने वे सब हमसे डिस्कस भी कीं.

“एक लेटर बनायेंगे कि हम इलाहाबाद के कुछ यूथ मिलकर यूथ कन्वेंशन करना चाहते हैं. ये लेटर पूरे भारत के सभी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के छात्र संघों को भेजे जायेंगे. कितने विश्वविद्यालय होंगे देश में विमल लगभग ?”

“डेढ़ सौ से ऊपर ही होने चाहिएं.”

“बस तो ठीक है, सभी के छात्र संघ अध्यक्षों को बुलाया जायेगा. और उन यूनिवर्सिटीज के एचओडी को भी बुला लेंगे. अब बचे युवा सांसद. मेरे अंदाज़े से २०० से कम सांसद नहीं होंगे जिनकी उम्र ४० से नीचे होगी. उन सब को भी पत्र भेजेंगे कि हम देश का सबसे बड़ा यूथ कन्वेंशन करा रहे हैं और आपकी उपस्थिति सादर प्रार्थनीय है. कितने लोग हो गए...?”

“लेकिन वो सब आएंगे ?” विवेक या मैं शंका से पूछ बैठते.

“अरे उनके बाप भी आएंगे. पहले एक काम करेंगे. हम राहुल गाँधी को चिठ्ठी भेजेंगे. इस समय सबसे ज़्यादा चर्चा किसको चाहिए, राहुल गाँधी को. एक बार उसने आने की स्वीकृति दे दी फिर हर चिठ्ठी में लिख देंगे कि राहुल गाँधी जी यूथ कन्वेंशन की अध्यक्षता करेंगे फिर किसकी हिम्मत है कि आने को मना करे...कैसा है प्लान?”

हम मुग्ध होकर देखते रहते. इलाहाबाद जैसी लोकल राजनीति वाली जगह में इतनी बड़ी सोच रखने वाला आदमी हमें दूरदर्शी दिखाई देता. वह मुझे और विवेक को हर बार एक काम एलोट कर देता. 

“तुम विमल इंडिया के सभी यूनिवर्सिटीज की लिस्ट निकालो और तुम विवेक सभी ४० साल के कम वाले सांसदों की लिस्ट तैयार करो.”

हम अपने तईं तैयारियां करते लेकिन वह हर बार इतनी ही बातें करता. उसको ऐसी बातें करने में मज़ा आता था ये हमें थोड़ा बाद में पता चला. उसके बोलने का अंदाज़ पूरी दुनिया से अलग था. जितनी देर में वह एक वाक्य बोलता उतनी देर में मैं अपनी कोई कहानी किसी को पढ़ के सुना सकता था. इत्मीनान उसकी पूरी बॉडी लैंग्वेज से बहता रहता था और हाथ उठने तक में एक अनोखा शाहीपना था. हमारी बड़ी-बड़ी योजनाओं और लंबी बातों के जवाब में वह एक हाथ ऊपर उठा के सिर्फ़ इतना कहता, “कोच्छ नहीं....”. उसकी योजनाएं उसके तीव्र दिमाग की उपज थीं और बाकी किसी की कोई योजना, चाहे वह जितनी भी अच्छी हो, उसे प्रभावित नहीं कर पाती थी. तब तक हमने बकैती को साक्षात नहीं देखा था और ये अनुभव यादगार रहा. एक बनारसी होने के नाते मैंने ‘भौकाल’ को कई बार साक्षात देखा था लेकिन ये इलाहाबाद था और वहीँ मुझे पता चला कि हर शहर की खासियतें अलग होती हैं और यह इलाहाबादी बकैती थी जिसका दुनिया में कहीं कोई तोड़ नहीं था. अनिरुद्ध ने अपनी तरफ से कभी नहीं कहा कि वह यूथ कन्वेंशन नहीं कराएगा बल्कि मुझे पूरा यकीन है कि अब भी मैं उसे फ़ोन करूँ तो वह कुछ नयी योजनाएं ज़रूर बताएगा. हमने खुद ही अंदाज़ा लगा लिया जब एक दिन हमने जोश में भर कर उसे फ़ोन किया और कहा कि हम उसके घर प्लानिंग के लिए आने वाले हैं. उसने पूछा कि हम कितनी देर में पहुँच जायेंगे, हमने बताया कि हम अधिक से अधिक पैंतालीस मिनट में सिविल लाइन्स से अल्लापुर पहुँच जायेंगे.

जब हम पहुंचे तो तीन बार बजाने पर उसने दरवाज़ा खोला. हम जानते थे कि गजगामिनी की तरह उठ कर आने में इतना वक्त तो लगेगा ही इसलिए हमने जल्दबाजी नहीं दिखाई. वह आया और दरवाज़ा खोल कर दरवाज़े के पास बने बाथरूम में घुस गया. हम सामने जाकर उसके कमरे में बैठे जो उसके वकील पिताजी का चैंबर भी था और उसमे वकालत की मोटी-मोटी किताबें रखीं थीं. वह बाथरूम से झूमता हुआ आया और विवेक की बगल में बैठता हुआ बोला, “एक घंटे से पेशाब लगी थी लेकिन उठने का मन नहीं कर रहा था तभी तुम लोगों का फोन आ गया कि तुम लोग पौन घंटे में आ जाओगे. फिर हम सोचे कि अब इकठ्ठे जब दरवाज़ा खोलने उठेंगे तभी.....”

मैंने विवेक का चेहरा देखा और विवेक ने मेरा. हम दोनों ने एक दूसरे में माथे पर बड़े-बड़े अक्षरों में मूर्ख लिखा हुआ पढ़ा और उसके बिस्तर पर ढेर हो गए.

                                 २०.           

मुझे लोज छोड़ने का पछतावा होने लगा था जिसमें इस अँधेरे कमरे का बहुत बड़ा रोल था. दिन में भी बत्ती जलाये रखनी होती थी और नहाने के दौरान अगर बत्ती चली जाए तो मैं खुद को एक ऐसी अँधेरी दुनिया में पाता था जहाँ पानी गिरने की आवाज़ से मुझे नल बंद करना होता था और रोज़ के अभ्यास से वहाँ से निकलना होता था. मुझे लगने लगा था कि अगर मैंने ये कमरा नहीं छोड़ा तो किसी दिन अँधेरे में किसी चीज़ से टकरा कर मैं इस दुनिया से विदा हो जाऊंगा. मेरी लाश दो तीन दिन तक लावारिस पड़ी रहेगी और जब सुशील भईया बदबू सूंघ कर ऊपर आएंगे तो तुरंत विवेक को फोन लगाएंगे, “अरे यार विमल, विवेक तो मर गया. उसकी लाश यहाँ पड़ी हुई है.”

विवेक कहेगा, “भईया मैं विवेक हूँ और जो मरा है वो विमल है.”

सुशील भईया अपनी गलती सुधारेंगे और कहेंगे, “हाँ यार, याद आया ये तो विमल है. तुम तो थाने वाली सड़क पर रहते हो ना ?

“हाँ भईया.” वो कहेगा.

“कमरे की बात तुमने ही की थी ना ?” वह फिर से आश्वस्त होना चाहेंगे.

“हाँ भईया, अपने दोस्त विमल के लिए जो वहाँ रहता है.” वह सफाई देगा.

“हाँ हाँ विमल...तो वही तुम्हारा दोस्त विमल मर गया है, तुम आ जाओ यहीं.”

विवेक कहेगा कि वो तुरंत आ रहा है तो सुशील भईया कहेंगे, “यार आते वक्त एक बीस रुपये का वोडा लेते आना.”

मैं इस कल्पना से घबरा उठता. हालाँकि मेरी कहानियों की पहली किताब छप गयी थी लेकिन मैं उस समय प्यार में था और मरने के लिए कतई तैयार नहीं था. मरने से पहले मैं कुछ और किताबें लिखना चाहता था और जिस लड़की से प्यार में था, उससे शादी करना चाहता था. मैंने विवेक से कहा कि इस कमरे में आना मेरी गलती थी और वह मेरे लिए कोई और कमरा खोजे. उसने कहा कि उसकी ‘विवेक प्रोपर्टीज’ के नाम से प्रोपर्टी डीलिंग की कोई दुकान नहीं है और कमरे खोजने का काम मैं खुद करूँ. हालाँकि मेरे सामने ऐसा बोलने के बाद विवेक ने कमरा खोजना शुरू कर दिया था.

मैं कमरा छोड़ने के बाद एकाध बार लोज में दूबे जी से मिलने गया या कहें कि शोले की दुकान पर चाय सिगरेट पीते हुए वह मिल गए तो मुझे भीतर खींच ले गए. लोज छोड़ने के बाद जब मैं वहाँ गया तो वहाँ के बाशिंदों ने मेरा स्वागत शादी के बाद मायके लौटी हुई बेटी की तरह किया और मुझे बताया गया कि यहाँ मेरे पीठ पीछे मुझे ‘साईंटिस्ट’ कहा जाता था जिसमे मेरे हुलिए और दूसरों से कम बात करने की आदत का रोल था. वहाँ तैयारी कर रहे बच्चों को मेरा किरदार शक्तिमान सीरियल के डॉक्टर जैकाल की तरह लगता था और ये जानने के बाद मुझे पता चला कि क्यों जब मैं कहीं जाने के लिए बाहर निकलता था तो कुछ लोग पीछे से चिल्लाते थे, “पॉवर...पॉवर.” फौजी ने भी मेरा स्वागत किया और मुझे सुबह-सुबह ही पीने के लिए कुछ नशीला पदार्थ ऑफर किया जिसे मैंने प्यार से मना कर दिया.

जब मैं लोज में रहता था तो फौजी बहुत कम बार मेरे कमरे में आये थे लेकिन वह जब भी आते, किताबों से ठसाठस भरी मेरी अलमारी को बड़ी हसरत भरी निगाहों से देखते और कहते, “अरे एकाध किताब हमको भी दीजिए ना , हमारे काम लायक.”

मैं पूछता, “किस टाइप की किताब चाहिए आपको ?”

वो शरमा कर कहते, “जिसमे कहानी के साथ चित्र भी हो.”

मैं असमंजस में पड़ जाता तो वह कहते, “चित्र न भी हो तो लाइए कहानिये वाली दे दीजिए.” मैं जब उनकी मांग समझ पाया तो क्षमा मांगने के अलावा मेरे पास कोई रास्ता नहीं था.

“वैसी किताबें तो मेरे पास नहीं है भाई साहब.” वो मेरी ओर भयानक हैरत से देखते और अविश्वसनीय तरीके से मेरी अलमारी की ओर देखते हुए कहते, “का फायदा हेतना किताब रखला के जब ‘काम’ के एक्को किताब नईख धईले.” मैं उनकी उम्मीदों पर खरा न उतर पाने के कारण शर्मिंदा होता और उन्हें उस तरह की सीडियां देने का प्रस्ताव देता जिसे वह नकार देते. उनका कहना था कि देखना अनपढों का काम है, जब वह पढ़े लिखे हैं तो उनका मनोरंजन भी पढ़ने के ज़रिये होना चाहिए.

उस दिन भी फौजी ने मेरा मज़ाक उड़ाया और कहा कि एक आलमारी किताब रखने के बावजूद मेरा कलेक्शन अधूरा है. मैंने उनकी बात में हामी भरी और कहा कि मैं अपनी इस घटिया हरकत के लिए उनका गुनाहगार हूँ. उन्होंने मुझे राय दी कि इस गलती को सुधारने का एक ही तरीका है कि मैं खुद कुछ वैसी ही कहानियाँ लिखूं. मैंने कोशिश करने का वायदा किया और अपने पुराने कमरे को हसरत से देखता हुआ लौट आया.

मैं उस कमरे से भी निकल कर शाम को थाने वाली सड़क से होते हुए उसी एरिये में आ जाता जहाँ विवेक का घर था. हम शाम की चाय पीने से पहले नन्हे अंडे वाले के यहाँ अक्सर अंडे खाते. मेरे शुरुआती निर्देशों के बाद उसे मेरी रूचि याद हो गयी थी और वह हमें देखते ही कहता, “दो हाफ फ्राई, एक में मिर्चा नहीं और और दूसरे में झोंक के ?” मैं सहमति में सिर हिलाता. वह मुझे ‘मिरचे वाले भाई साहब’ के रूप में जानने लगा था. जब कभी मैं कई दिनों के लिए बनारस जाता तो वह विवेक को अकेला घूमता देख कर उससे पूछता, “उ मिर्चवा झोंकवावे वाले कहाँ गएन ?” विवेक बताता कि वो बनारस गया है तो उसे यह जानकर आश्चर्य होता कि मेरा घर इलाहाबाद नहीं बनारस है. उसका कहना था कि मैं शकल से ही इलाहाबादी दिखाई देता हूँ. हम ऑमलेट खाने के लिए वहाँ बंद पड़े दरवाज़े के चबूतरे पर बैठ कर अपनी बारी का इंतजार करते और आगे की प्लानिंग करते. मुझे मुंबई निकलना था, लेकिन कैसे और कब, ये थोड़ा अनिश्चित था. मेरा ख्याल था कि मैं इस नौकरी में ही ट्रांसफर लूँगा ताकि मुंबई में जीने खाने की दिक्कत ना हो. मैं विवेक से उस लड़की के बारे में ढेर सारी बातें करता जो मेरी ज़िंदगी में एक आशीर्वाद की तरह आई थी और मेरे पूरे वजूद पर छाती जा रही थी. कीडगंज में जब तक मैं रहा तब तक अक्सर मेरा खाना बैरहना चौराहे पर स्थित श्रीराम भोजनालय में ही हुआ और रात का खाना खाने के बाद मैं और विवेक घंटो टहलते. मैं रात में उससे फोन पर बातें करता टहलता रहता और विवेक अपनी आँखों में मेरे लिए उम्मीद लिए मुस्कुराता चलता रहता. मेरे घर से शादी के लिए पड़ रहे दबाव अब बढ़ने लगे थे और मुझे अब लगने लगा था कि मुझे वह मिल गयी है जिसके साथ मैं ज़िंदगी भर रह सकता हूँ.
वो समझने के लिहाज से बहुत कठिन लड़की थी और उसे यह बात पता थी. मुझे उसकी जटिलता पसंद थी और अब बात फोन और संदेशों से यहाँ तक पहुँच चुकी थी कि मैं उससे मिले बिना नहीं रह सकता था. हम एक दूसरे की सारी बातें बिना कहें समझ जाते और बिना मिले ही एक दूसरे की कविताओं पर रो पड़ते. अनिल अम्बानी के बारे में चाहे जितनी बुरी बातें कही जाती हों, मैं उनका एहसान कभी नहीं उतार सकता कि एसटीडी काल्स फ्री वाली सुविधा उन्हीं की फोन कंपनी देती थी. मेरे कहने पर उसने एक रिलायंस फोन ले लिया और मैंने भी. हम रात भर बातें करते और मैं एक कहानीकार होने के बावजूद उसे अपनी लिखी कवितायेँ सुनाता लेकिन उसकी कविताओं और उसकी भाषा के आगे मैं खुद को एकदम कच्चा महसूस करता. उसकी भाषा में इतनी रवानी थी कि वह साधारण मैसेज भी भेजती तो उसकी लाईनों में कविता हुआ करती. मैं उससे मिलने उसके शहर १५-१६ घंटे की दूरी तय करके पहुंचा और यह मेरी ज़िंदगी की सबसे खूबसूरत यात्रा थी. हमारी मुलाकात सपनों जैसी थी और उसके साथ उसके हथेलियों में हथेलियाँ भर कर उसका शहर घूमते हुए मैंने शादी की बात उठाई और उसने आंसुओं से जवाब दिया. शायद मेरी किस्मत ऐसी नहीं थी कि मैं उसे अपनी ज़िंदगी में शामिल कर पाता. वह कभी मुझे अपनी मजबूरियां समझा नहीं पायी या शायद मैं समझ नहीं पाया. सपनों के उस सफर की उम्र बहुत कम थी और मैं अपनी खुशियों के साथ जितने दिन भी रहा, वो मेरी ज़िंदगी के सबसे खूबसूरत दिन थे. मैं उसके शहर जाता और हम साथ-साथ बादलों पर घूमते. उसका शहर उसकी तरह ही खूबसूरत था और वहाँ के बादल बहुत पास होते. कुछ तो इतने नजदीक की आँखों में उतर आते. मैं उन दिनों बहुत जल्दी रो पड़ता था. उसने मुझे बिलकुल अपने जैसा कर लिया था और उसका शहर मुझे बचपन में बिछड़ कर जवानी में वापस मिले अपने करीबी दोस्त जैसा लगता. वह मुझे घर वालों की मर्ज़ी से शादी कर लेने के लिए कहती , और कहती कि अगर उसकी एक मांग मानी जाए तो वह यही चाहेगी कि मेरी दुल्हन को वह अपने हाथों से सजाये. मैंने हर तरीके से उसे समझाने और उसकी समस्या को समझने की कोशिश की लेकिन मैं कामयाब नहीं हुआ और तब के बाद मेरी ज़िंदगी में आगे आने वाली सारी कामयाबियाँ उस नाकामयाबी के सामने बौनी हो गयीं. खलिश मेरा स्थायी भाव हो गया और उसके बाद छोटी-छोटी बीमारियाँ भी हुईं तो उन्होंने ठीक होने में बहुत वक्त लिया और एक बड़ी बीमारी ने ज़िंदगी के सबसे बड़े टीचर की भूमिका निभाई और अब भी निभा रही है. ज़िंदगी महत्वाकांक्षाओं से रहित हो गयी लगती है और अब लगता है जो-जो काम करने का मन था उन्हें किया जाए और खुश रहा जाए. परेशानी खड़ी करने वाले लोगों और शिकायत करने वाले लोगों से कोफ़्त होती है और उन दोस्तों के साथ वक्त बिताने का मन करता है जिनके लिए ज़िंदगी की छोटी खुशियाँ मायने रखती हों. अपने आसपास जो चीज़ें खराब हैं उन्हें ठीक करने में अपना जितना 
हो सके योगदान दिया जाए और बिना कोई शिकायत या रूदन किये ज़िंदगी का आदर किया जाए.

                                                     
                                                          क्रमशः .....

                                                प्रत्येक रविवार को नयी किश्त ...




संपर्क - 

विमल चन्द्र पाण्डेय 
प्लाट न. 130 - 131 
मिसिरपुरा , लहरतारा 
वाराणसी , उ.प्र. 221002

फोन न. - 09820813904
         09451887246


फिल्मो में विशेष रूचि